📅 तारीख: 15 मई 2025
🕒 समय: रात 08:25 बजे
🏘 स्थान: दिल्ली मुखर्जीनगर
प्रिय डायरी,
आज बहुत दिनों बाद फिर से मुखर्जीनगर की सड़कों पर कदम रखा।
दिल्ली का यह इलाका सिर्फ एक जगह नहीं, यह सपनों, संघर्ष और उम्मीदों की धड़कन है।
यहाँ हर कोने पर कोई न कोई सपना पल रहा होता है—
कहीं कोई लाइब्रेरी में किताबों में डूबा है,
कहीं कोई स्ट्रीट लाइट के नीचे नोट्स बना रहा है,
तो कहीं कोई चाय के कुल्हड़ के साथ आने वाले कल की योजना बना रहा है।
यहाँ हर सुबह UPSC, SSC, बैंकिंग, और रेलवे की तैयारी करने वाले हज़ारों छात्र एक नई उम्मीद के साथ उठते हैं,
और हर रात वही उम्मीदें थोड़ी थकान, थोड़े डर और कुछ नए इरादों के साथ सोती हैं।
आज मैं इन सड़कों से गुज़रते हुए कुछ पुरानी यादों में खो गया।
मुखर्जीनगर – किताबों और संघर्ष की नगरी
मुखर्जीनगर सिर्फ एक जगह नहीं, यह सपनों की मंडी है।
जहाँ किताबों की दुकानों पर भारी डिस्काउंट में मोटी-मोटी गाइडें बिकती हैं।
जहाँ हर गली में एक नई लाइब्रेरी खुली होती है, जिसमें कोई अपनी पहली परीक्षा की तैयारी कर रहा होता है,
तो कोई अपने पाँचवे प्रयास में भी उम्मीदें ज़िंदा रखे बैठा होता है।
जहाँ हर नुक्कड़ पर बैठकर दोस्त मिलते हैं,
कभी पॉलिटी और इकॉनमी की चर्चा होती है,
तो कभी सिर्फ "यार, कटऑफ कितनी जाएगी?" जैसे सवालों में ज़िंदगी सिमट जाती है।
यहाँ हर कोई भाग रहा है, पर किसी को यह नहीं पता कि मंज़िल कितनी दूर है।
कोचिंग सेंटर की दौड़
मुखर्जीनगर में अगर दिन की शुरुआत देखनी हो, तो सुबह 7 बजे किसी कोचिंग सेंटर के बाहर जाकर खड़े हो जाओ।
बैग टाँगे लड़के-लड़कियाँ, हाथों में नोट्स, और आँखों में एक अजीब सा जुनून।
यहाँ कोचिंग एक ज़रूरत नहीं, बल्कि एक परंपरा बन चुकी है।
कहीं पर कोई फैकल्टी "संविधान के अनुच्छेद" समझा रहा होता है,
तो कहीं कोई "इंडियन एक्सप्रेस" के एडिटोरियल पर चर्चा कर रहा होता है।
यहाँ हर इंसान को यह लगता है कि "अगर मेहनत करूँगा, तो एक दिन सिलेक्शन ज़रूर होगा।"
पर कई बार मेहनत भी कम पड़ जाती है।
और तब... तब यहाँ के चाय के ठेले सबसे बड़ा सहारा बनते हैं।
"चाय, समोसे और कटऑफ की चर्चा"
मुखर्जीनगर की असली लाइफ देखनी हो, तो शाम के समय किसी चाय के ठेले पर चले जाओ।
कुल्हड़ में चाय पकड़े कुछ लड़के-लड़कियाँ...
कोई कहेगा— "भाई, इस बार प्री क्लियर हो जाएगा?"
कोई बोलेगा— "मेरा GS तो अच्छा है, पर CSAT में डर लग रहा है।"
कोई बस मन ही मन सोच रहा होगा कि "क्या यह मेरा आखिरी प्रयास होगा?"
यहाँ चाय सिर्फ एक पेय नहीं, बल्कि उम्मीद का दूसरा नाम है।
"सफलता और असफलता – दोनों की गवाही देता मुखर्जीनगर"
यहाँ हर साल कोई न कोई अपने सपने पूरे करके निकलता है।
कभी कोई LBSNAA के लिए रवाना होता है, तो कोई SSC में पोस्टिंग पाकर दिल्ली छोड़ देता है।
पर हर साल कोई न कोई अपने नोट्स, किताबें और अरमान यहाँ छोड़कर चला जाता है।
कोई थक जाता है।
कोई हार जाता है।
कोई परिवार की उम्मीदों के बोझ तले दब जाता है।
मुखर्जीनगर में हर किसी के लिए सफलता नहीं लिखी होती,
लेकिन फिर भी हर कोई यहाँ कुछ न कुछ सीखकर ही जाता है।
"क्या मैं यहाँ फिर लौटूँगा?"
आज जब मैं यहाँ की गलियों से गुज़रा, तो सोचा—
"क्या मुझे फिर से इन लाइब्रेरियों में बैठने का मौका मिलेगा?"
"क्या मैं फिर से वही चाय के ठेले पर जाकर अपने सपनों की चर्चा करूँगा?"
शायद नहीं।
शायद हाँ।
पर एक बात पक्की है—
मुखर्जीनगर सिर्फ एक जगह नहीं, यह एक एहसास है।
यहाँ जिसने भी कुछ समय बिताया है, वो इसे कभी भूल नहीं सकता।
क्योंकि यहाँ संघर्ष, सपने, असफलता, सफलता— सब एक साथ चलते हैं।