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शब्द दो-धारी तलवार से अधिक तीक्ष्ण होते हैं

 शब्द दो-धारी तलवार से अधिक तीक्ष्ण होते हैं 

आपसी संवाद जीवमात्र की चेतना का प्रतिबिंब होता है जिसे सभी जीव अपने स्तर पर करते हैं, मनुष्य सभी जीवों में परिष्कृत है तो स्वाभाविक रूप से उसका संवाद का स्तर भी काफी परिमार्जित है। इस संवाद की पूरी प्रक्रिया की आधारभूत कड़ी हमारे शब्द होते हैं जो कि हमारे विचारों, मनोभावों के संप्रेषण का माध्यम होते हैं। दुधारी तलवार से हमारा सीधा-सा आशय होता है कि जो प्रयोक्ता को उसी परिमाण में हानि करती है, जितनी की उस पर, जिस पर की उसका प्रयोग किया जाता है। अकसर प्रयोक्ता को हुई हानि सापेक्षिक रूप से कहीं ज्यादा होती है तो शब्दों और वाणी के संदर्भ में यह कैसे होता है कि बोलने वाला स्वयं ही अपने रचे तीक्ष्ण शब्दों के मायाजाल से आहत होता है। 
          पहले तो हमें मितभाषी शब्द को समझना होगा, जो कम बोलता हो वह शब्दों का चयन भी उचित करे यह कोई आवश्यक नहीं। जैसा कि संत कबीर ने कहा— 
          ‘‘ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोए। 
          औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए।’’ 
          यहां वे वाणी की शीतलता पर जोर देते हैं न कि मितव्ययता पर, किंतु आश्चर्यजनक रूप से दोहरेपन का शिकार अकसर वे ही होते हैं। जो कि अपेक्षाकृत ज्यादा बोलते हैं। इसी संदर्भ में गांधी जी के अवलोकन का उल्लेख करना समीचीन होगा, जहां सत्य के साथ मेरे प्रयोग में वे लिखते हैं—‘‘मैं अकसर कम बोलता था और अपनी बात प्रभावशाली तरीके से नहीं रख पाता था, किंतु दीर्घकाल में मुझे इसका बहुत लाभ हुआ, क्योंकि मुझे कभी अपने कहे हुए पर पछताना नहीं पड़ता।’’यहां गांधी जी मितभाषी होने पर शब्दों के चयन में सावधानी बरतने पर जोर देते हैं। 
          हमारे शास्त्र अनादि काल से ही वाणी के संयम की महत्ता पर जोर देते आए हैं। जैन धर्म में तो वाणी के स्तर पर भी हिंसा का निषेध है। बौद्ध साहित्य में अकसर जिक्र आता है क किस प्रकार कटु वाणी का प्रत्युत्तर बुद्ध गहरी स्मिति से देते थे। सार यह कहा जा सकता है कि मीठा बोलना श्रेयस्कर है। आखिर कर्णप्रिय संवाद को कोई नापसंद नहीं करेगा। इसके तो लाभ ही लाभ हैं तभी तो नक्सलवाद की समस्या से निपटने के लिए गृह मंत्रालय की ओर से आग्रहपूर्वक सी.आर.पी.एफ. को यह निर्देश दिए गए की वे स्थानीय निवासियों से संवाद कायम करें, किंतु इन सबके बीच क्या यह कहा जा सकता है कि तीक्ष्ण वचन इसी अनुपात में हानि भी कर सकते हैं जिस अनुपात में मीठे बोल लाभकारी होते हैं। 
          सबसे पहले तो तीक्ष्ण बोल हमारे वार्तालाप की तटस्था समाप्त कर देते हैं। सुनने वाला हमारे मूल मुद्दे पर कम ध्यान देगा और उसके दूसरे आयाम खोजने का प्रयास करेगा। इससे हम कभी सामने वाले तक अपनी बात ठीक प्रकार से नहीं पहुंचा पाएंगे। इसी कारण जनसंपर्क विभाग सदैव ही इस बात पर जोर देते हैं कि हम क्या और कैसे संप्रेषित करते हैं। हमारे क्रोध के तीक्ष्ण उद्गार अकसर ही हमारी अवचेतना के उद्गार होते हैं और उसके कुछ शब्द ही, संबंधों को सदा के लिए खराब कर सकते हैं क्योंकि शब्द निरपेक्ष नहीं होते हैं इनमें मानवीय भावनाओं का रस भी मिला होता है कठोर शब्द इन सभी भावनाओं का अतिव्यापन कर लेते हैं। विशेषकर सार्वजनिक जीवन में इसका ध्यान रखा जाना चाहिए। वेनेजुएला के राष्ट्रपति ‘ह्यूगो शावेज’ जब संयुक्त राष्ट्र की महासभा को संबोधित करने गए तो अपने संबोधन में उन्होंने तत्कालीन यू.एस. राष्ट्रपति जॉर्ज बुश (जिन्होंने की उनसे ठीक पहले महासभा को संबोधित किया था) के लिए ‘शैतान’ शब्द का प्रयोग किया था और कहा था कि उनसे ठीक पहले इस मंच पर शैतान आया था। कहना न होगा कि शावेज की इन दो पंक्तियों ने दोनों देशों के संबंधों को बद से बदतर बनाने में क्या भूमिका निभाई होगी। 
          हमारे तीक्ष्ण शब्द हमें बाद में सिर्फ पछताने का ही अवसर देते हैं। उनसे संबंधों में आया दुराव संवाद के स्तर पर ठीक करना काफी दुष्कर कार्य होता है। यह समस्या विकराल रूप इसलिए ले लेती है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है वह स्वयं में कोई विगलित इकाई नहीं है। हम जो कहते हैं कि उसके परिणामों की जिम्मेदारी भी हमारी स्वयं की ही होती है। यह एक तरह से अधिकार और दायित्व की परंपरा का ही अंग है। जिस प्रकार ज्यादा अधिकार स्वतः ही हम पर अंकुश लगा देते हैं उसी प्रकार अधिकारों के आलोक में लिए गए निर्णयों की जिम्मेदारी भी हमारी स्वयं की ही होती है। भारत के पूर्व विदेश सचिव शिव शंकर मेनन ने इस संदर्भ में सटीक कहा था, जब वे एक राजनयिकों के आख्यान को संबोधित कर रहे थे। उन्होंने कहा था, ‘‘जिंदगी बहुत आसान होती, यदि हमें सिर्फ अपने आप से जूझना पड़ता, किंतु वास्तविक जिंदगी में दूसरे व्यक्तियों से संवाद करना होता है, जूझना होता है, उनके मनोभाव समझने होते हैं।’’ तो निस्संदेह इस प्रक्रिया में हमारे शब्दों का चयन बहुत अमोघ औषधि का कार्य करते हैं। वास्तविक जीवन में हम कोई द्वीप नहीं है। हम एक ऐसे संगठन का हिस्सा हैं जो कई रूपों में जुड़ा हुआ है। 
          हिंदी के प्रसिद्ध कवि निराला ने अपनी रचना ‘कुकुरमुत्ता’ में ‘कुकुरमुत्ता और गुलाब’ के आपसी संवाद के माध्यम से बड़ी खूबसूरती से दिखाया है कि किस प्रकार कुकुरमुत्ता के गलत शब्दों के चयन से उसकी पूरी पृष्ठभूमि, उसकी व्यग्रता, उसकी कुंठा खुलकर सामने आ जाती है। बिल गेट्स की कंपनी माइक्रोसॉफ्ट जब इंटरनेट एक्सप्लोरर बनाती है तो इसकी प्रेरणा उन्हें उन पूर्वगामियों से मिलती है जिन्होंने इंटरनेट गेट वे में सबसे पहला कदम रखा था और माइक्रोसॉफ्ट पर तंज कसे और उसका मजाक उड़ाया था। आधुनिक प्रतिस्पर्धी युग में यह सर्वविदित है कि जो विचार को सबसे पहले मूर्त रूप देता है वही विजेता होता है, किंतु उन पूर्वगामियों का बड़बोलापन ही था कि एक ही वर्ष के भीतर वे बाजार से बाहर हो गए थे। इस बड़बोलेपन का शिकार हमारे राजनीतिज्ञ अकसर होते हैं। वे अकसर भावावेश में कुछ कह देते हैं और बाद में माफी मांगते हैं, किंतु गलत शब्दों के चयन का परिणाम काफी भयावह होता है जो कि लंबे समय तक उनकी छवि का पीछा करता है। आज के इस संचार के दौर में यह और ज्यादा आवश्यक है कि हम शब्दों के चयन में सावधानी बरतें, क्योंकि सूचनाएं इतनी तेजी से फैलती हैं कि बहुत बार हमें अहसास हो उससे पहले शब्द रूपी दुधारी तलवार काम कर चुकी होती है। अतः आवश्यकता है कि हम शब्द रूपी खजाने में से ऐसे मुक्तामणि बिखेरकर हम संवाद की परंपरा को और अधिक मजबूत कर सकें तथा हम आश्वस्त हो पाएं कि हमारे शब्द और वाणी किसी भी समस्या के समाधान के पथ को प्रशस्त करेंगे उससे विचलन का कार्य कभी नहीं करें। 
          ‘‘रहिमन जिह्वा बावरी, कहि गई सरग-पताल। 
          आपु तो कह भीतर रही, जूती खात कपाल।’’ 
अर्थात् जीभ भी कैसी बावली है कि कुछ भी बोलकर खुद तो मुंह के अंदर चली जाती है पर जूतियां सिर पर पड़ने लगती हैं। शब्दों की मार बहुत तीक्ष्ण भी होती हैं और बहुत मीठी भी। एक शब्द महायुद्ध करवा देता है तो दूसरा ऐसी शीतल फुहारें छोड़ता है कि सारा युद्धोन्माद शांति में बदल जाता है। इसीलिए शब्द की महिमा अपरंपार बताई गई है। शब्द को ब्रह्म भी कहा जाता है कुछ भी बोलने के पहले सोचना जरूरी है वरना बोलने में तो कुछ नहीं जाता पर नतीजे भयानक हो जाते हैं। प्राचीन काल से ही यह सीख बताई जाती रही है। मगर इस पर अमल बहुत कम लोग कर पाते हैं। सीता यदि राम से स्वर्णमृग न मांगती तो न तो उनका हरण होता, न इतना बड़ा युद्ध! द्रौपदी यदि दुर्योधन की खिल्ली न उड़ाती कि ‘अंधे के घर अंधा ही पैदा’ होता है तो शायद महाभारत ही न होता। आदमी की जबान ही उसकी सबसे बड़ी शत्रु है। अकबर इलाहाबादी ने कहा था— 
          ‘‘खींचो न कमानों को न तलवार निकालो, 
          जब तोप मुकाबिल हो अखबार निकालो।’’ 
          यानी तोप का मुकाबला शब्द ही कर सकते हैं। शब्द अपने नकारात्मक रूप में भी मौजूद हैं और अपने सकारात्मक रूप में भी। बस यह तो उसे प्रयोग में लाने वाले पर निर्भर है कि वह उस शब्द का प्रयोग किस मंशा से करता है। एक ही शब्द कहीं मार-काट मचा देता है तो कहीं उसका प्रयोग प्यार का प्रतीक बन जाता है। शब्द की महिमा उसकी मुक्ति पर निर्भर करती है कि उसे प्रयोग कहां लाया गया और उस शब्द का प्रयोग किसने किया। किसी फिल्म में जब विलेन उस शब्द का प्रयोग करता है तो दर्शक समझ जाता है कि विलेन अब खलनायक रूप में साक्षात् उतर आया है, लेकिन जब नायक प्रयोग करता है तो साफ लगता है कि अब कुछ शुभ होगा। हिटलर और उसका सेनापति भी जीत चाहते थे और मित्र राष्ट्र भी। दोनों तरफ मार-काट थी और युद्धोन्माद था, मगर हिटलर की तरफ जहां तानाशाही थी, वहीं मित्र राष्ट्रों की तरफ विश्व-शांति का जज्बा, पर दोनों तरफ से शब्दों की मार समान थीं और उनका परिणाम अलग-अलग। 
          शब्दों के जो खिलाड़ी होते हैं वे शब्दों काह्य खूब सोच-समझकर ही इस्तेमाल करते हैं। बड़े-बड़े लेखकों और साहित्यकारों के विचार निश्चित ही प्रभावित करते हैं मगर यदि उन्हें शब्दों में महारथ नहीं तो वे साहित्य में भी लोकप्रिय नहीं बन पाएंगे और अगर शब्दों पर उनकी पकड़ है, तो वे लोकप्रियता की सीढ़ियां धड़ाधड़ चढ़ते जाएंगे। यही हाल राजनीति का है। राजनीति के क्षेत्र में प्रयुक्त शब्द या वाक्यांश निर्वाचन का पांसा ही पलट देते हैं तथा बड़े-बड़े नेताओं को धूल चटा देते हैं। शब्दों का उचित प्रयोग करने वाला राजनेता ऊपर की सीढ़ी चढ़ सकता है तथा लोकनायक बन सकता है। अंग्रेजी में यदि अर्नेस्ट हेमिंग्वे को दक्षता हासिल थी तो हिंदी में सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ को इसी श्रेणी में रखा जा सकता है जिनके शब्द कठिन होते हुए भी सीधे पाठक के मर्म पर चोट करते हैं। मुंशी प्रेमचंद ने हिंदुस्तानी भाषा और नागरी लिपि को अपनाया जिसका नतीजा यह निकला कि हिंदी में मुंशी प्रेमचंद उपन्यास और कहानी के प्रतीक बन गए।


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