1. सत्ता का खेल
"सत्ता के लोभी बने, देश किया बर्बाद,
जनता पूछे रोज़ यह, कब होगा सुधार?"
→ नेता अपनी सत्ता की भूख में देश का अहित कर रहे हैं, और जनता बेबस होकर सुधार की उम्मीद कर रही है।
2. जनता की अनदेखी
"मंच पे बातें प्यार की, नीचे करें घात,
ऐसे नेता देख के, जनता हो निराश।"
→ नेता मंच पर मीठी-मीठी बातें करते हैं, लेकिन असल में जनता के साथ छलावा करते हैं।
3. भ्रष्टाचार का बोलबाला
"लालच की रस्सी लिए, बंटे सभी इंसाफ,
जिसके पास धन अधिक, उसका हो विकास।"
→ न्याय और अवसर केवल उन्हीं को मिलते हैं जिनके पास पैसा और सत्ता होती है।
4. झूठे वादे
"वादे करके भूलते, नेता बड़े महान,
जनता ठगी सी रह गई, हर दिन हुई परेशान।"
→ चुनाव के समय नेता बड़े-बड़े वादे करते हैं, लेकिन बाद में उन्हें भूल जाते हैं, जिससे जनता ठगी महसूस करती है।
5. सत्ता के लालची
"सत्ता खातिर जो लड़े, जनता गई है भूल,
अपने सुख के वास्ते, भरते अपनी झोल।"
→ नेता केवल सत्ता के लिए लड़ते हैं और जनता की समस्याओं को भूल जाते हैं, जबकि खुद अपनी जेबें भरते रहते हैं।
6. लोकतंत्र की दुर्दशा
"लोकतंत्र के नाम पर, करते बस व्यापार,
नेता सारे एक से, जनता बेकरार।"
→ लोकतंत्र के नाम पर राजनीति अब व्यापार बन चुकी है, और जनता हर बार ठगी जाती है।
7. गरीबों की अनदेखी
"भूखा बैठा कृषक है, नेता करें मज़े,
जिसका श्रम से देश खिला, वही भरे धुएँ।"
→ जो किसान और मजदूर मेहनत से देश का पेट भरते हैं, वे खुद भूखे रहते हैं, जबकि नेता ऐश करते हैं।
8. मीडिया और राजनीति
"मीडिया की बोलियां, लगती रोज़ नीलाम,
सच को छिपा कर सभी, झूठ करें सलाम।"
→ आजकल मीडिया भी बिक चुकी है, जो सच को छिपाकर झूठ का महिमामंडन करती है।
9. भाई-भतीजावाद
"काबिल बैठे कोने में, अयोग्य बने नवाब,
राजनीति के खेल में, रिश्ते बने खराब।"
→ राजनीति में योग्य लोगों की अनदेखी होती है, जबकि अयोग्य लोग सत्ता के शिखर पर बैठ जाते हैं।
10. भ्रष्टाचार की जड़ें
"हर कुर्सी के नीचे ही, मिलती काली छाँह,
नीति बने धनवान की, बाकी सब है राह।"
→ हर सत्ता और कुर्सी के पीछे भ्रष्टाचार की काली छाया होती है, और नीतियाँ सिर्फ अमीरों के लिए बनती हैं।
11. जनता की मजबूरी
"चुनाव आये तो मिले, नेता गली-गली,
जीत के फिर दूर हों, जनता रहे छली।"
→ चुनाव के समय नेता जनता से मिलने आते हैं, लेकिन जीतने के बाद उन्हें भूल जाते हैं।
12. वंशवाद का खेल
"बाप गया तो बेटा आया, कुर्सी रही विराज,
जनता फिर से लूटती, नेता करे समाज।"
→ राजनीति अब खानदानी विरासत बन चुकी है, जहां एक नेता के जाने के बाद उसका परिवार सत्ता संभाल लेता है।
13. सत्ता की भूख
"नेता सारे एक हैं, सत्ता ही है चाह,
जनता की तकलीफ से, उनको नहीं है राह।"
→ सभी नेता केवल सत्ता के पीछे भागते हैं, जनता की परेशानियों से उन्हें कोई मतलब नहीं।
14. चुनावी धोखा
"चुनावी जुमले रोज़ हैं, जनता करे सवाल,
सपने जो दिखलाए थे, पूरे करो जनाब।"
→ चुनाव के दौरान किए गए वादों को पूरा करने की मांग जनता बार-बार करती है, लेकिन नेता हमेशा बहाने बनाते हैं।
15. न्याय की दुर्दशा
"न्याय नहीं अब देश में, बिके सभी इंसाफ,
जिसकी जितनी पहुँच हो, उसका उतना लाभ।"
→ आजकल न्याय भी पैसे और सत्ता के आधार पर मिलता है, गरीबों को न्याय पाना मुश्किल हो गया है।
ये दोहे भ्रष्ट राजनीति के अलग-अलग पहलुओं को उजागर करते हैं।