यह खुला मौसम,
कुछ कह रहा है,
आ दिल मेरे सुन।
क़ुदरत को मिली नयी ज़िंदगी जैसे,
हवाओं ने छेड़ी जैसे नयी धुन।
लोगों ने रहना शुरू किया जो घर पे,
इस धरती ने भी राहत पायी,
दूषित इलाक़ों में लोगों को,
शुद्ध हवा में साँस है आयी।
पंछी जो खो गये थे कहीं,
फिर से आने लगे वो नज़र,
पशु पंछियों को मिला आराम,
लौट आए वो फिर इस डगर।
कुदरत के नज़ारे छुप गये थे,
दूर दूर तक फैली थी धूल,
सब कुछ दूषित कर दिया था,
हा ये थी हमारी ही भूल।
धरती को सम्भालना सवारना,
थी हमारी ये ज़िम्मेदारी,
प्रदूषित करके हमने करली,
अपनी धरती से ग़द्दारी।
मान रहे थे इस धरती को,
हम अपनी जैसे जागीर,
दिखा दी कुदरत ने ताकत अपनी,
लालच हमारा दिया है चीर।
अंदर बैठा दिया हमको,
आयी कुदरत की जान मे जान,
एहसास हुआ हमको गलती का,
बन रहे हम फिर से इंसान।
पंछियों ने शुरू कर दिया है,
फिर से अपनी धुन मे गान,
नीला निर्मल दिख रहा है,
चमक रहा है ये आसमान।
वातावरण हुआ है साफ़,
छा रहे हैं प्यारे बादल,
ओजोन फिर से जुड़ रही है,
लहरायेगी ममता का आँचल।
हँस भी फिर से लौट आए,
स्वच्छ हुआ है जो ये सागर,
मौज लेने लग गयी है,
किनारे आ रही हर लहर।
भूल गये हम ही है कुदरत,
जुदा नहीं है हम इस से,
बस नाता हम ने तोड़ लिया था,
जोड़ के नाता खुद से।
लौट रही है धरती फिर से,
अपने असली रूप में,
जगमगाएगी अब फिर से,
सूरज की निखरी धूप में।
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