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सोशल मीडिया का दुरुपयोग

सोशल मीडिया एक नई घटना है और यह दुनिया भर में बनी रहने वाली है। सोशल मीडिया ने लोगों को एक ही समय पर अलग-अलग होने के बावजूद एक साथ जुड़ने में सक्षम बना दिया है और सोशल मीडिया ने लोगों के हित, लगाव और व्यवहार के नए पहलुओं को उत्पन्न किया है।
          सोशल मीडिया के माध्यम से सामान्य जानकारी से लेकर आपदाओं की जानकारी, लोगों तक आसानी से पहुंच जाती है जैसा कि पहले नहीं होता था, लेकिन लोगों का इन घटनाओं को व्यक्त करने का तरीका और उस पर लोगों की लोगों की प्रतिक्रिया, सोशल मीडिया को एक दुधारी तलवार बना देती है। 
          एक बार एक मेट्रो स्टेशन के बाहर गरीब परिवार का एक स्कूली बच्चा बहुत दयनीय स्थिति में बैठा, वजन मापने वाली मशीन लिए बैठा था और साथ ही एक पुस्तक भी पढ़ रहा था। बच्चे की इन परिस्थितियों को एक आगुंतक ने देखा और उसका ध्यान उस बच्चे पर आकर्षित हुआ। आगंतुक ने उस बच्चे का फोटो खींचा और उसे सोशल साइट फेसबुक पर अपलोड कर दिया और वह तसवीर वायरल हो गई। वायरल तस्वीर के जवाब में, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव सहित कई लोग बच्चे की मदद के लिए आगे आए, जिन्होंने कुछ काम किए बिना उस बच्चे के अध्ययन के लिए पूरा खर्च उठाने का वादा किया है। हालांकि यह सोशल मीडिया के सकारात्मक प्रभाव का एक उदाहरण हो सकता है। 
          2012 में यह सोशल मीडिया के शुरुआती मामलों में से एक था जो सरकार के सामने आया, जब भूकंप पीड़ितों की तस्वीर और वीडियो को सोशल मीडिया पर वायरल करना शुरू कर दिया गया और अराजक तत्वों ने इन तस्वीरों को सोशल मीडिया पर फैलाया और ये असम (असोम) और बर्मा के सामूहिक दंगों के पीड़ित मुस्लिम थे। इन तसवीरों को सोशल मीडिया पर निजी स्वार्थों के लिए और दंगों को भड़काने के लिए किया गया था और इसके कारण कई जगहों पर प्रतिक्रिया देखने को मिली थी। 
          सोशल मीडिया पर दक्षिण भारत में रहने वाले स्थानीय प्रवासियों के खिलाफ नफरत और बदले से भरे हुए संदेश को वायरल किया गया था, जिसने लोगों को प्रभावित किया और जल्द ही वहां से भारी मात्रा में पलायन हुआ। लोगों को असम (असोम) और पूर्वोत्तर राज्यों में लौटने के लिए मजबूर किया था, जहां से वह आए थे। यह सोशल मीडिया के नकारात्मक पक्ष का एक स्पष्ट उदाहरण था, जो बहुत ही कम समय में ही बड़े पैमाने पर उन्माद को फैलाने में सफल रहा। 
          व्यक्तिगत स्तर पर, सोशल मीडिया में ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं, जहां पर किसी व्यक्ति का संबंध अपने पार्टनर से समाप्त हो जाता है तब वह अपने पूर्व पार्टनर से बदला लेने के लिए अंतरंगी तस्वीरें या विडियो अपलोड करता है। इसके बाद के कानूनी परिणाम जो भी हों, पीड़ित की प्रतिष्ठा को तुरंत नुकसान पहुंचता है और कुछ मामलों में बहुत घातक परिणाम सामने आते हैं। ऐसा न हो कि यह भारत के सामाजिक तथा सांस्कृतिक ताने-बाने को ही छिन्न-भिन्न कर दे। 
          सोशल मीडिया का एक और बुरा नतीजा यह है कि यह नाबालिगों के लिए सभी प्रकार की अश्लील (पोर्न) शैलियों पर पहुंच सुनिश्चित करता है, जो तेजी से खासकर युवा पीढ़ी के बीच सामाजिक व्यवहार और नैतिकता की परिभाषा को बदल रहा है। पोर्न में भाग लेने वाले अधिक लोग और यहां तक कि अधिक संख्या में इसका प्रयोग करने से आसानी से पैसा बनाने का अवसर, इस उद्योग को तेजी से बढ़ने में मदद करता है। समाज न तो इससे दूर जा सकता है और न ही इसे अनदेखा कर सकता है। समस्या यह है कि समाज तेजी से बदलती टेक्नोलॉजी के साथ तालमेल नहीं बना पा रहा है और अनजान सामाजिक परिणामों का सामना करने के लिए तैयार नहीं हैं, जो अगली पीढ़ी और युवाओं को करीब लाने के बजाय उनके बीच दूरी बढ़ा रहा है। ऐसी दुनिया में, जहां हर रोज फेस बुक, ट्विटर और इंस्टाग्राम स्थायी मुलाकात की जगह ले रहे हैं। इन प्लेटफार्मों का उपयोग करने की परिणामी जिम्मेदारी अब भी उबर रही है। भारत में इंटरनेट और मोबाइल का प्रयोग बढ़ता जा रहा है और जब उपयोगकर्ता इन प्लेटफार्मों (सोशल मीडिया) पर पहली बार आता है तब गंभीर परिणामों के साथ विस्तृत सामूहिक उन्माद या सांप्रदायिक प्रतिक्रिया बढ़ जाती हैं। इसीलिए सरकार को समाज के सभी हित धारक नागरिकों को इकट्ठा करके मीडिया विनियमन के साथ मीडिया आजादी संतुलन के मुद्दे को समझाने की जरूरत है। 
          किसी भी मुक्त समाज में, यह एक संवेदनशील विषय है जिसके परिणामस्वरूप किसी भी तरह के प्रतिबंधों या विनियमों का विरोध होगा, लेकिन समस्या यह है कि सभी समाज समान नहीं होते हैं और इसीलिए प्रत्येक समाज को एक स्वतंत्र सोशल मीडिया के नकारात्मक परिणामों से बचने के लिए अपने तंत्र को विकसित करना होगा। साथ-साथ सरकार को यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि सोशय मीडिया के सर्वर भारत में स्थित हों तथा उनका जन-शिकायत निवारण संबंधी तंत्र प्रबंधन भारत में स्थित हो। 
          हाल ही में गुजरात में पटेल आंदोलन के दौरान भारत सरकार ने एक दिन के लिए इंटरनेट और सोशल मीडिया को बंद कर दिया था। उन्होंने ऐसा ही ईद के महीने में जम्मू-कश्मीर में किया, जो प्रतिबंधित उपाय था। गुजरात में अधिक शांतिपूर्ण माहौल रहा, जबकि जम्मू-कश्मीर में प्रतिबंध के बावजूद पुलिस के साथ हिंसा और संघर्ष हुआ। अगर इंटरनेट और सोशल मीडिया पर प्रतिबंध न लगा होता तो स्थिति बहुत खराब हो सकती थी। ऐसे अवसरों का लाभ उठाने के लिए लोगों के पास पर्याप्त निहित स्वार्थ हैं। इन अवसरों का अराजक तत्वों को इंतजार रहता है और इन अराजक तत्वों से निपटना सरकार की जिम्मेदारी है। 
          फेसबुक पर राजनेताओं या लोकप्रिय हस्तियों के खिलाफ टिप्पणी करने के लिए गिरफ्तारी के मामलों में अकसर, मौजूदा कानूनों को जाने बिना या या सोशल मीडिया के पहलुओं को समझने बिना पुलिस कार्यवाही कर रही है। 
          बंबई या बांबे (मुंबई) में बाल ठाकरे की मौत के बाद बंबई या बांबे (मुंबई) बंद के विरुद्ध दो लड़कियों की फेसबुक पर टिप्पणी के बाद गिरफ्तारी भी एक मामला है। अधिकांश राज्यों की पुलिस पूरी तरह टेक्नोलॉजी या सोशल मीडिया के विकास से अनजान है और इसीलिए पुलिस को इसके उपयोग और दुरुपयोग का ज्ञान नहीं है। इस अभिव्यक्ति की आजादी जैसी सामग्री का सोशल मीडिया पर एक बार अपलोड होना और वायरल होना हिंसक प्रतिक्रिया को बढ़ावा देना है। ये वास्तविक रूप से गंभीर समस्याएं हैं और सरकार को इस उभरते हुए खतरों के लिए तत्काल ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है।


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