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नींद

नींद
सोना तो चाहता हुँ मैं भी, 
लेकिन नींद का कोई अता पता नहीं। 
नींद दूर है जो मेरी आँखो से, 
इस में मेरा कोई ख़ता नहीं। 
ऐसा नहीं है कि शोर है हर तरफ़, 
ख़ामोशी भी है और हवा भी लापता नहीं। 
जाने क्यूँ चैन नहीं है मेरे मन को, 
तन्हाई का आलम भी हटा नहीं। 
क्या पाना चाह रहा है मेरा मन, 
कहता भी तो मुझसे कोई कथा नहीं। 
सब बंधन तोड़ कर आज़ाद घूम रहा है, 
मानता तो पहले से ही कोई प्रथा नहीं। 
महफ़िल में भी तनहा ख़ुद को पाता हुँ, 
कैसे कहूँ कि है मुझको कोई व्यथा नहीं। 
बयान नहीं कर पा रहा मैं हालात अपने, 
सुनाने को मेरे पास तो कोई कथा नहीं। 
अकेले रह कर भी शान्ति नहीं मिल रहा, 
ढूँढ रहा हुँ क्या मैं सत्यता नयीं.?
एकांत अच्छा लगता है मुझे वादियों का, 
आसमान के नीचे होना चाहता हुँ लापता कहीं। 
मक़सद क्या है अख़िर ज़िंदगी का, 
हर सफ़र में दिल मेरा खोजता कहीं।

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