ट्रेन का सफ़र और दादी की लव स्टोरी
आलोक और आसु दोनों बहुत ही अच्छे दोस्त थे।कोई भी काम दोनों साथ-साथ ही करते थे।बचपन से दोनों साथ थे ।दोनों ने एक साथ पढ़ाई पूरी की और उसके बाद संयोगवश नौकरी भी उन्हें एक ही मिल गयी थी।दोनों ने एक साथ भारत सरकार में सेवा देना शुरू किया था।आलोक और आसु अब छुट्टियाँ भी एक साथ आते थे।दोनों अपने भाई तो नहीं थे लेकिन उनके बीच स्नेह भाइयों से कम नहीं था।आज तक किसी ने उन्हें झगड़ते नहीं देखा था।
तो जैसा कि हर बार होता था,इस बार भी रक्षाबंधन पर दोनों ने एक साथ छुट्टी ली थी।दोनों अपने घरों से ज्यादा किसी बंगले पर बैठकर समय बिताते थे।रक्षाबंधन के कुछ दिन बाद कुछ सामान खरीदने वो दोनों पटना गए हुए थे।हालाँकि उनके शहर में भी सारी चीजें मिल जाती थीं।लेकिन छुट्टी आये और थोड़ा घूमना-फिरना नहीं हुआ तो फिर छुट्टी कैसी?बस यही सोचकर दोनों ने तय किया था कि पटना भी घूम लेंगे और शॉपिंग भी हो जायेगी।अगर छुट्टी आओ और पुराने दोस्तों से ना मिलो तो बाद में फेसबुक और वाट्स एप्प पर उनसे कुछ इस तरह के ताने तो मिल ही जाते हैं,"हाँ भाई! अब तो नौकरी लग गयी है अब हमसे क्यों मिलोगे..?"उनदोनो के पटना जाने का कारण ये भी था कि वो अपने दोस्तों से भी मिल लेंगे।।
सुबह-सुबह पटना पहुँचने के बाद कंकड़बाग में दोस्तों से मुलाक़ात हुई।गाँधी मैदान के आस-पास की सैर हुई।आसु ने अशोक राजपथ से इरशाद कामिल का काव्य-संग्रह 'एक महीना नज़्मों का' खरीदा।फिर थोड़ा और घूमने के बाद जरुरी सामान खरीदे गए।दोस्तों के यहाँ साथ बैठकर लंच हुआ ।लंच खजांची रोड वाले मित्रों के रूम पर हुआ।वहाँ अभिषेक के कमरे में वही पाँच लीटर वाले गैस चूल्हे पर ढाई लीटर के कूकर में बने दाल-भात और आलू के भरते को खाते हुए आसु को अपने पुराने दिन याद आ गए ।यादें भी न समझ लीजिये गुब्बारे में भरी किसी सुगन्धित गैस की तरह होती है ।एक हलके से पिन के लग जाने पर यादों की पूरी सुगंध आपके पास फ़ैल जाती है और आपको मंत्रमुग्ध कर जाती है।खैर,तीनो ने साथ बैठकर खाना ख़त्म किया,साथ में बर्तन धोये और फिर आलोक और आसु स्टेशन के लिए निकल पड़े।
स्टेशन पहुँचने पर देखा तो दो ट्रेनें लगभग 10 मिनट के अंतराल पर थीं।वो दोनों असमंजस में थे कि किस ट्रेन को चुना जाए कि तभी आलोक ने कहा,
"सूरत-भागलपुर दूर से आ रही है पता नहीं उसमें कितनी भीड़ हो।चलो पाटलिपुत्र एक्सप्रेस में चलकर बैठ जाते हैं।वो तो यहीं से चलती है उसमें भीड़ कम होगी।"
आसु ने आलोक का प्रस्ताव स्वीकारा और दोनों प्लेटफॉर्म नंबर 10 की तरफ बढ़ गए।
"अरे..,आओ एस्केलेटर भी है!"
आलोक ने एस्केलेटर पर पाँव रखते हुए कहा।
"तुम इससे पहले इस पर नहीं चढ़े हो क्या...?"
"नहीं ,पटना जंक्शन पर मैंने पहले तो कभी नहीं देखा था।"
"मैं तो पिछली छुट्टी में ही इसपर चढ़ चुका हूँ।"
बातें करते-करते वो प्लेटफॉर्म पर आ गए और ट्रेनों में झाँककर जगह खोजने लगे।आखिरकार एक जनरल डब्बे में उन्होंने अगले 90 किलोमीटर के सफ़र के लिए जगह ले ली।खिड़की किनारे एक वृद्ध महिला बैठी थीं।उनके बगल में आलोक और उसके बगल में आसु...।धीरे-धीरे और यात्री आये और ट्रेन चलने से पहले उनके कंपार्टमेंट में 10 यात्री हो गए थे।आमने-सामने चार-चार और उस तरफ खिड़की किनारे एक-एक यात्री दोनों खिड़कियों वाली सीट पर बैठे थे।थोड़ी देर तक बैठे रहने के बाद आलोक ने कहा,
"अरे यार ट्रेन का टाइम तो सवा तीन बजे का है।साढ़े तीन बजते-बजते तो ट्रेन चल पड़ती थी।आज तो पौने चार हो गया,पता नहीं ट्रेन अभी तक क्यों नहीं चली है.....।"
मुझे पहले से ही शक था कि तुम्हारे कारण देर होगी ही।वो तो तुम मुझसे बड़े हो इसलिए मैंने कुछ नहीं कहा और चुपचाप यहाँ आकर बैठ गया।"
दोनों एक दूसरे पर आक्षेप लगाने लगे और दिन भर की गयी एक दूसरे की गलतियों को गिनाने लगे।उनकी इस बचकानी हरकत को देख और कभी-कभी किसी व्यंग्य विशेष पर उनके सहयात्री मुस्का देते थे।
"पाटलिपुत्र एक्सप्रेस सवा चार बजे के बाद जायेगी।"स्टेशन पर लगे लाउडस्पीकर से निकलती आवाज उन दोनों ने भी सुनी।थोड़ी देर के लिए चुप होकर दोनों ने ये घोषणा सुनी और फिर आरोप-प्रत्यारोप शुरू कर दिया।
ट्रेन चलने से पहले ट्रेन के दरवाजे पर खड़े किसी यात्री ने थूका और वो आलोक के बगल में खिड़की किनारे बैठी बूढी औरत पर आ पड़ा।उनका हरेक बाल सफ़ेद हो चुका था, झुर्रियाफ्ता चेहरा, छोटी-छोटी आँखे देखकर वो बिलकुल शांत स्वभाव की लग रही थीं।लेकिन पान-मसाले की पीक पड़ते ही वो आगबबूला हो उठीं।उन्होंने मगही में ही उस लड़के को खूब गालियाँ दे डाली।
"आँय रे छौरा सूझ नै रहलौ हे....?की हरदम चिबाबैत रहो हीं जे थूक रहले हें।मारबौ ने कनचपरिया पर चार चमेटा कि गाले लाल हो जैतौ...!(क्यों जी लड़के..!दिखाई नहीं देता क्या...?हमेशा क्या चबाते रहते हो जो थूकना इतना जरुरी हो गया?चार थप्पड़ मार के गाल लाल कर देंगे।)"
उनके इस रूप को देखकर ट्रेन में बैठे सभी लोग दंग रह गए।खिड़की के किनारे वाली एकल सीट पर बैठा उनका पोता यह सब देख रहा था और उनको इस तरह गुस्सा होता देख वो मंद-मंद मुस्का रहा था।आलोक और आसु ने भी एक दूसरे को देखा और आँखों-आँखों में ये कह दिया 'ये तो पूरी हिटलर हैं ....'।
थोड़ा और समय बीतने के बाद ट्रेन ने पटना जंक्शन को अलविदा कहा और चलने लगी।पाँच मिनट बाद ही अगला स्टेशन राजेन्द्रनगर टर्मिनल आ गया।चूँकि काफी समय से उस दिशा में कोई ट्रेन नहीं गयी थी,इस कारण काफी भीड़ उस ट्रेन में चढ़ गयी।अब जहाँ तीन लोगों के बैठने की जगह थी वहाँ 5 लोग या 6 लोग बैठे थे।और खिड़की वाली एक यात्री की सीट पर तीन लोग बड़ी मुश्किल से बैठ गए थे।ऊपर सामन रखने की जगह भी यात्री अब अपनी तशरीफ़ रख चुके थे।लोग इतने ज्यादा हो गए थे कि ट्रेन में खड़े लोग तो जैसे एक दूसरे में स्थापित हुए जा रहे थे।एक आदमी जिसने एक हाथ ऊपर किया हुआ था और उसका एक हाथ नीचे था।उसकी नाक में खुजली हुई तो ना तो उसका ऊपर वाला हाथ नीचे आ पा रहा था और नीचे वाले हाथ का तो ऊपर आना संभव ही नहीं था।उसने अपनी नाक बगल वाले यात्री पर रगड़नी चाही तो वो उसे ऐसा करने से मना करना चाहता था।लेकिन वो भी हिल ना सका ।फलतः उस व्यक्ति की नाक की खुजली शांत हो गयी।कई लोग अपनी नेचुरल कॉल पर काबू किये खड़े या फिर बैठे रहे।भीड़-भार में कई मनोरंजक दृश्य भी देखने को मिले।
राजेंद्रनगर से ट्रेन खुलने के बाद आसु और आलोक की बोरियत थोड़ी बढ़ गयी।वो आपस में बात कर के थोड़ा थक चुके थे।तभी आसु ने कहा ,
"तुम्हारे मोबाइल में तो मूवी पड़ी होगी ना....?कोई भी मूवी चला लेते हैं ।दो घंटे में मूवी भी ख़त्म हो जायेगी और हम मोकामा भी पहुँच जाएँगे....।"
आलोक ने तुरंत अपना फोन निकाला और अब कौन सी फ़िल्म देखी जाए दोनों इस सोंच में पड़ गए।दोनों ने 'माँझी-द मॉउंटैन मैन'देखना मुनासिब समझा।आलोक ने अपने बैग से इयरफोन निकाला और अलोक और आसु दोनों ने एक-एक कान में इयरफोन लगाकर फ़िल्म देखना शुरू कर दिया।
फ़िल्म की शुरुआत का दृश्य चल रहा था जिसमें नवाजुद्दीन पहाड़ पर पत्थर फेंक रहे होते हैं।अब आलोक और आसु ट्रेन के माहौल से पूर्णतः निर्लिप्त होकर माँझी पर केंद्रित हो चुके थे कि तभी आलोक के बगल में बैठी दादी ने उन्हें टोका,
"कौन सिनेमा देख रहे हो बौआ...?"दादी ने मगही में बड़े ही प्यार से पूछा,लेकिन जिस तरह उस बूढी औरत ने अपने ऊपर थूकने वाले लड़के को डाँटा था, उस तल्खी को देखकर आलोक और आसु दोनों थोड़े डरे हुए थे।इसलिए अब तक इनदोनो ने उनसे कोई बात नहीं की थी।लेकिन अब जब उन्होंने पूछ ही दिया था तो आलोक ने भी उन्हें मगही में ही जवाब दिया।
"मामा ,'माँझी' सिनेमा देख रहे हैं।"आलोक के घर के आस-पास दादी को मामा भी बोला जाता था इसीलिए उसने उस बूढी औरत को मामा कहके संबोधित किया।
"ओ...."
इतना कहकर दादी भी आलोक के मोबाइल पर अपनी उम्रदराज आँखें टिकाकर बैठ गयीं।उन्हें भी काफी दूर जाना था और मन को बहलाने के लिए एक अच्छा जरिया उन्हें मिल गया था।चूँकि उन्हें कुछ सुनाई नहीं दे रहा था इसलिए वो मोबाइल में चल रहे दृश्य को ही देखकर सबकुछ समझने का प्रयास करने लगीं।बीच-बीच में आलोक मूवी को पाउज कर उन्हें कहानी बता और समझा दिया करता था।
शुरुआत में ही जब आलोक को यह एहसास हुआ कि दादी फ़िल्म में दिलचस्पी दिखा रही हैं,तभी उसने फ़िल्म की कहानी संक्षेप में बता दी।उसने उन्हें बताया,
"इसकी पत्नी पहाड़ से गिर जाती है।वो समय से अस्पताल नहीं पहुँच पाती जिसकी वजह से वो मर जाती है। माँझी के गाँव और अस्पताल के बीच में इसी पहाड़ के आने से वो समय से अस्पताल नहीं पहुँच पाती इसलिए माँझी अकेले ही पहाड़ तोड़कर बीच से रास्ता बनाना चाहता है।और अकेले ही पहाड़ तोड़ने में लग भी जाता है।"
इतनी सी कहानी सुनते ही दादी द्रवित हो गयीं और उनके चेहरे की भाव-भंगिमा काफी बदल गयी।जैसे ही आलोक ने कहा था कि इसकी पत्नी मर गयी वो इसी बात में रह गयीं ।वो इसके बाद शायद आलोक की कोई भी और बात सुन ही नहीं पायीं ।उन्होंने आलोक की बात पूरी होने पर कहा,
"हाँ बौआ...!पति-पत्नी में कोई एक भी मर जाए तो समझ लो दूसरा भी आधा उसी दिन मर जाता है।जिसकी पूरी दुनिया ही कोई बन गया होता है उसके जाने के बाद ऐसा लगता है जैसे इस दुनिया में कुछ बचा ही नहीं है।लेकिन पता नहीं वो कौन सा मोह है जिसके कारण प्राण नहीं निकल पाता।"
अभी तक दोनों दोस्त जिसे सफ़ेद संगमरमर की तरह ठोस और मजबूत समझ रहे थे वास्तव में वो सफ़ेद तो थी लेकिन संगमरमर की तरह नहीं मोम की तरह ....।हलकी सी आँच पड़ने से ही वो पिघलने लगी ।उन्होंने तुरंत दादी की माँग की तरफ देखा और देखते ही समझ गए कि बात क्या है...।फिर अपने आंसुओं को पोंछते हुए उन्होंने कहा,
"मेरे मालिक भी दो साल पहले गुज़र गए ।उसके बाद से मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता।हर वक़्त बस यही लगते रहता है कि कब भगवान आएँ और मुझे भी उठा ले जाएँ...।"
आलोक को उनके बारे में जानकर काफी दुःख हुआ।उनके दुखी चेहरे को देखकर उसे काफी तक़लीफ़ हो रही थी।इसलिए उसने ढांढस बाँधने के लिए उनसे कहा,
"क्या करियेगा मामा ये तो होना ही था एक दिन...।लोग जीवनसाथी बनते हैं लेकिन ये भी सच है कि दोनों एक-दूसरे का साथ जीवन भर नहीं निभा सकते।एक ना एक को तो छोड़कर पहले ही जाना पडेगा।"
"ता भगवान पहले हमको ही काहे नै उठा लिए।यहाँ हमको रोने के लिए छोड़ गए।देखो रोते-रोते अब हमको दिखना भी बहुत कम हो गया है।आज ही डॉक्टर ये चश्मा दिया और बोला है कि ज्यादा मत रोइये इससे आँख पर जोर पड़ेगा।"
"हाँ तो सही ही तो कह रहा है डॉक्टर अब आप ज्यादा मत सोचिये,आराम से रहिये आपकी ही आँख है ,इसको बचा के रखना आपकी ही जिम्मेदारी है ना ।आपके बेटा-बहू तो ज्यादा से ज्यादा आपको डॉक्टर के पास ले जाकर दवाइयाँ दिलवा सकते हैं।लेकिन इसकी हिफाजत तो आपको ही करनी पड़ेगी ना....।"
"हम तो कह ही रहे थे कि हमको नै जाना है डॉक्टर-अर के पास ।तुम्ही बताओ बौआ अब किसको देखने के लिए ये आँखें बचाएँ जिनको देखते थे वो तो छोड़ के चल ही गए।अब क्या खाली उनकी फ़ोटो देखेंगे...?फोटो तो ऐसे भी मन में ही छपा हुआ उनका।उसके लिए किसी आँख की क्या जरुरत।"
आलोक आजतक फिल्मो में ही इस तरह का प्यार देखता आया था और प्यार में इस तरह की बड़ी-बड़ी बातें भी उसने फिल्मों में ही सुनी थी।आज पहली बार उसे दिख रहा था कि वास्तव में कोई किसी को इतना प्यार कर सकता है।अब आलोक की दिलचस्पी दादी के बारे में थोड़ा और जानने की हो गयी।लेकिन अभी उसकी जिम्मेदारी थी निराश दादी को थोड़ा खुश करना।उसने उनसे कहा,
"नहीं दादी अभी तो आपको बहुत कुछ देखना है।वो देखिये आपका पोता...।अभी तो उसकी शादी देखनी है उसके बाल-बच्चे देखने हैं।वो कितना ख़याल रखता है आपका देखिए आपको डॉक्टर से दिखवाने के लिए पटना लाया है।"
दादी का पोता 16 17 साल का रहा होगा जो दादी को बहुत चिढ़ा रहा था।ऐसे भी बच्चे और बूढ़े एक तरह के होते हैं।दोनों थोड़ी सी बात पर ही चिढ जाते हैं।ऐसे ही वो पोते को जिस काम के लिए मना कर रही थीं,वही काम वो और ज्यादा कर रहा था।ट्रेन जब आगे चलकर थोड़ी खाली हो गयी थी तो वो बार-बार ट्रेन रुकने पर नीचे उतर जाता और जब ट्रेन चलने को होती तब फिर से ट्रेन में बैठ जाता।दादी को ये बिलकुल भी पसंद नहीं आ रहा था।दादी ही क्यों किसी भी अभिभावक को ये बात कतई बर्दाश्त नहीं होगी।लेकिन जब एक दो बार दादी ने मना किया तो वो जानबूझकर ऐसा करने लगा।कई बार ट्रेन चलने पर भी जब उनका पोता उन्हें नहीं दीखता तो वो उस खिड़की किनारे बैठे लोगों से पूछने लगती कि उनका पोता चढ़ पाया कि नहीं।पूरी तसल्ली करने के बाद ही वो स्थिर हो पाती थीं।पोते की शादी की बात आते ही वो बोलीं,
"नहीं इसके माँ-बाप बोल रहे हैं कि अभी इसकी शादी नहीं करेंगे।"
"हाँ मामा, तो अभी करने की जरुरत ही क्या है 15 16 साल का तो होगा ही।अभी पढ़-लिख के कुछ करले फिर शादी कर दीजियेगा।"
"नै बौआ इसका 17 चढ़ गया है।और पढ़ता-लिखता बिलकुल भी नहीं।मैट्रिक का फॉर्म भरा था लेकिन परीक्षा ही नहीं दिया।अभी कुछ करता भी नहीं।हम तो कह रहे हैं कि इसका बिआह कर दो,कल कनियाय(पत्नी) आ जायेगी तो खुद ही कमाने लगेगा।"
अब इस बात का आलोक क्या जवाब दे वो समझ नहीं पाया ।वो दादा-दादी की प्रेम-कहानी सुनना चाहता था लेकिन पोते में उलझ गया।इसलिए उसने दुबारा से मूवी देखना शुरू किया।अब फ़िल्म में वो दृश्य चल रहा था जब माँझी की पत्नी फगुनियां की शादी किसी और से होने वाली थी और नवाजुद्दीन उसे भगा के ले जाने आये थे।इस दृश्य को समझाते हुए आलोक ने दादी को बताया कि,
"ये माँझी जो है ना वो ज्यादा कुछ नहीं करता इसलिए उस लड़की का बाप उसकी शादी किसी ज्यादा कमाने वाले से करना चाहता है।"
इसपर दादी अपनी प्रतिक्रया देने से नहीं रुक पायीं,
"हाँ बौआ तो कौन माँ-बाप चाहेगा कि हमारी बेटी बिना कमाने वाले लड़के के घर चली जाए।लेकिन ये भी सही ही है कि जब पत्नी और बाल-बच्चे की जिम्मेदारी सर पर पड़ती है तो आदमी कुछ ना कुछ कमाता जरूर है।"
दादी की बातों से, पहले वाले लोगों की सोच पता चल रही थी।नहीं तो आज के लड़के,लड़के क्या लड़कियाँ भी बिना कुछ किये शादी करना पसंद नहीं करते।दादी ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा,
"हमारी शादी भी जब हुई थी तो मेरे मालिक भी बिलकुल ही कुछ नहीं करते थे।बहुत दिन तक तो वो अपने बाबू जी पर आश्रित रहे लेकिन जब हम उनको ज्यादा तंग करने लगे तब वो एक दुकान पर काम करने लगे और पैसा कमाने लगे।हमको कभी मेरे मालिक डाँटते भी नहीं थे बौआ....।बहुत मानते थे हमको जो हम कहते थे,वो किसी तरह पूरा करना चाहते थे।तब हम भी उनको बहुत मानते थे बौआ.....।प्रेम तो दोनों तरफ से होता है ना।जितना करोगे उतना ही बढ़ेगा भी...।प्रेम और विद्या दो ऐसी चीज है जो जितना बाँटो उतना बढ़ती ही रहती है।जानते हो वो हमारी हरेक जरुरत बिना बोले पूरा करते थे और अगर कुछ बोल दो तो उसको पूरा करने के लिए तो वो पूरे व्याकुल हो जाते थे।इसीलिए बौआ,हम कोई ऐसा चीज बोलते ही नहीं थे जिसको पूरा करने में उनको दिक्कत हो।"
दादी बूढी हो गयी थीं।लेकिन आज उनकी आँखों में तरुणाई तैर रही थी।आलोक और आसु को अपने और अपने पति के बारे में बताते हुए वो एक बार फिर से जैसे अपने यौवन को पा चुकी थीं।उनके चेहरे पर बेशक झुर्रियाँ थीं लेकिन अभी वो प्यार की पोलिश से चमक रहा था।आलोक और आसु दोनों मंत्रमुग्ध होकर दादी की बातें सुन रहे थे।और जब वो अपनी बातें ख़त्म कर लेती तो फिर से फ़िल्म देखते और रोककर आलोक फिर से फ़िल्म की कहानी दादी को समझाने लगता था।इसबार कहानी समझाने के क्रम में आलोक ने बताया कि माँझी की पत्नी का नाम फगुनिया है।इससे पहले उसने कभी उसके नाम की चर्चा नहीं की थी।जैसे ही उसने दादी को ये बताया कि माँझी की पत्नी का नाम फगुनिया है ,मानो सूर्य का ताप पड़ने से ग्लेसियर फिर से पिघलने लगा।मतलब दादी के नयन फिर से अश्रुपूर्ण हो गए।आलोक और आसु को समझ नहीं आया कि इसबार क्या हुआ।फिर भी आलोक समझ गया कि जिसका पूरा शरीर जख्मों से छलनी हो उसे कहीं भी छुओ तो दर्द होगा ही।ठीक वही हाल दादी का था।पति के जाने के बाद वो बिलकुल ही टूट चुकी थीं।उनदोनों का साथ 58 सालों का था।और उनके पति के गुज़रे भी अभी महज दो ही साल हुए थे इसलिए जख्म अभी बहुत ताज़ा थे।लेकिन अबकी बार रोने का कारण खुद दादी ने अपनी बातों से स्पष्ट कर दिया और किसी को कुछ पूछने की जरुरत नहीं पड़ी।उन्होंने बताया,
"फागुन में ही मेरे मालिक हमको अकेला कर गए थे।रंगो से भरे इस महीने में हमको बेरंग बना के चले गए थे।तब से मुझे ना तो होली अच्छी लगती है ना ही कोई रंग पसंद है।फागुन आते ही मुझे लगता है जैसे मेरे कलेजे पर कोई हथौड़ा मारने लगता है।जिस दिन वो मरे थे उस दिन तो मुझे एक कौर भी खाया नहीं जाता है।उस दिन दिन भर मैं उसी कुर्सी के पास बैठी रहती हूँ जिसपर वो अपनी जिंदगी के आखिरी दिनों में बैठे रहते थे।पता है ...!उस दिन मेरे घर में कोई खाना नहीं खाता।बच्चे कहते हैं कि तुम नहीं खाओगी तो हम भी नहीं खाएँगे ।उनको खिलाने के लिए बड़ी मुश्किल से मैं एक कौर निगल पाती हूँ।क्या करें बौआ उस दिन तो बिलकुल कुछ भी नहीं खाया जाता।"
दादी को जैसे आज अपने दिल की सारी बातें सुनाने वाला कोई अच्छा दोस्त मिल गया था।वो अपनी प्रेम-कहानी सुनाती और फिर विरह-वेदना में कभी-कभी आँख भी गीली करती थी।और इनसब के बीच आलोक और आसु की दिलचस्पी उनकी कहानी में बनी हुई थी।उन्होंने अपने कॉलेज के या फिर स्कूल के या फिर अपने सहकर्मियों के तो बहुत सारे प्रेम-प्रसंग देख और सुन रखे थे।लेकिन इस तरह की प्रेम कहानी उनके लिए सचमुच बिलकुल अलग थी।वो एक बूढी औरत से एक जवान प्रेम-कहानी सुन रहे थे।जिसमे सबकुछ था जो एक प्रेम-कहानी में होता है।ऐसे भी कहा ही जाता है कि प्यार की कोई उम्र नहीं होती,प्यार कभी बूढ़ा नहीं होता,वगैरह-वगैरह.....।आगे फ़िल्म में जब फगुनिया गर्भवती रहती है तो दादी को भी अपने दिन याद आ जाते हैं।और वो उस दृश्य को देख के फिर आलोक और आसु को बताने लगती हैं।वैसे तो वो बता सिर्फ आलोक और आसु को ही रही थीं लेकिन उनकी बातें उस कंपार्टमेंट में मौजूद हरेक व्यक्ति बहुत ही ध्यान से सुन रहा था।दादी कहती हैं,
"पता है मरने से एक साल पहले वो पैर से बिलकुल लाचार हो गए थे।मेरे तीन बेटे हैं और बौआ मैं झूठ नहीं बोलूँगी,तीनो बहुत ही अच्छे और कर्तव्यनिष्ठ हैं।सभी अपने बाबूजी का बहुत ख्याल रखते थे।लेकिन जब कभी उनमें से कोई नहीं होता तो मैं किसी भी काम के लिए उनको यहाँ से वहाँ ले जाने लगती तब वो मना कर देते थे।लेकिन मैं उन्हें वो बात याद दिलाती थी कि जब मुझे बच्चा होने वाला रहता था तो कैसे वो एक पैर पर खड़े रहते थे और मुझे कोई काम नहीं करने देते थे।"
आलोक उनकी कहानी सुनकर कहीं खो गया ।उसे यकीन नहीं हो रहा था कि दो लोगों के बीच इतना अटूट प्यार हो सकता है।शायद इसी को कहते हैं 'मेड फॉर ईच अदर'।दादी आगे कंटिन्यू रहती हैं,
"पता है बौआ जब मुझे पहली बार बच्चा होने वाला था तो ना तो मेरी सास ज़िंदा थी और ना ही मेरी माँ ....।मेरे मालिक बहुत परेशान थे और वो अपनी चाची से हरेक बार कुछ ना कुछ पूछते रहते और कहीं लिख लेते थे।वो बार-बार उनसे पूछते अभी ये महीना चल रहा है,अभी क्या करना चाहिए..?अभी वो महीना चल रहा है अभी क्या करना चाहिए..?मैं कहती थी रहने दीजिये ना उतना चिंता करने की कोई बात नहीं है।सब ठीक-ठाक होगा।इसपर वो कहते थे सब ठीक-ठाक हो इसीलिए तो मैं चाची से पूछता रहता हूँ हमेशा ।बौआ पता है हमारे गाँव से भी उस समय हॉस्पिटल बहुत दूर था।वो तो कहो कि मेरा तीनो बच्चा बिना हॉस्पिटल गए ही ठीक-थक से हो गया।पहली बार जब मेरे पेट में दर्द उठा था तो मेरे मालिक कितना परेशान हो गए थे बता नहीं सकती।रात के 1 बजे वो दौड़े-दौड़े गए और अपनी चाची को बुलाकर लाये ।फिर तुरंत दौड़कर दाई को बुला लाये।खुद दरवाजे के बहार खड़े हो गए।मैं जब दर्द से चीख रही थी तो उनसे सुना नहीं जा रहा था।वो सोच रहे थे कि वहाँ से चले जाएँ लेकिन गए नहीं क्योंकि उस समय किसी भी सामान की जरुरत पड़ सकती थी।और जब मेरा पहला बेटा हुआ तो वो देखकर बहुत खुश हुए थे।"
दादी बिना रुके ही अपने अतीत को, अपने प्यार को आलोक के सामने जी रही थीं।आज उनके लिए समय का कोई अवरोध नहीं था।वो सालों पीछे जाकर अपनी जिंदगी जी रही थी और आलोक और बाकी लोग चलचित्र की तरह उसकी अनुभूति कर रहे थे।आगे पहाड़ तोड़ने के क्रम में माँझी के पास उसके पत्नी की निशानी उसकी पायल रहती है।उस दृश्य को भी आलोक समझाते हुए बोलता है,
"जानती हैं मामा उस समय ना माँझी के पास दो पायल खरीदने का पैसा नहीं था तो वो एक ही पायल खरीद कर दे पाया था।"
इस बात पर भी उन्हें अपनी प्रेम-कहानी मिलती-जुलती प्रतीत हुई और वो अपनी चेन दिखाते हुए बोली,
"बौआ हमको सिकड़ी का बहुत शौख था।लेकिन हम अपने मालिक को कभी नहीं बोले थे की हमको सिकड़ी चाहिये।लेकिन बातों-बातों में ही उनको ये पता चल गया कि मुझे सिकड़ी बहुत पसंद है।उन्होंने पैसे बचा-बचा के मेरे लिए ये सिकड़ी खरीदी थी।बहुत मानते थे बौआ वो हमको।अब बताओ वही नहीं हैं,इस सिकड़ी का हम क्या करें ।तनिक भी शोभा नहीं देता ये सिकड़ी हमपे।तब भी इसको उनका निशानी समझ के पहनले रहते हैं।जानते हो मेरे बरका बेटा का जो बेटा है मेरा पोत....,उ अपनी कनियाय(पत्नी) को कुछ दिन पहले कान वाला झुमका लाकर दिया।देख के मन तो बहुत खुश हुआ लेकिन हमको अपना दिन याद आ गया ।और फिर मालिक की खूब याद आने लगी।ये जो सिकड़ी देख रहे हो ना,लगा यही सिकड़ी मेरे गला का फंदा बन गया।हर बात में उनकी बहुत याद आती है बाबू।पता नै भगवान् हमको किसलिए बोझ बना के रोज रुलाते रहते हैं।जिंदगी भर का साथ था जल्दी से वहाँ भी साथ निभाने भेज देते ।वहाँ बेचारे अकेले होंगे।"
पूरी फ़िल्म मानो दादी को अपनी आत्मकथा सी लग रही थी।वो हरेक दृश्य पर कुछ ना कुछ जरूर बोलती थीं ।और हाँ एक बात वो फ़िल्म की शुरुआत से अभी तक दुहराती आयीं थीं
"बौआ ई तो मुसहरनी(एक दलित जाति मुसहर का स्त्रीलिंग रूप) है ना...।मुसहरनी इतनी सुन्दर कहाँ होती है।ये तो बहुत सुन्दर है।"
तब आलोक बार-बार उन्हें समझा रहा था,
"मामा ये तो हीरोइन है ना ,तो ये तो सुन्दर होगी ही ना ।आप और फ़िल्में भी देखती हैं मामा...?"
"हाँ बौआ घर में सब बच्चा-बुतरू देखते रहता है।निरहुआ का सिनेमा तब साथ में हम भी बैठ के देख लेते हैं।"
"अच्छा भोजपुरी सिनेमा आप ज्यादा देखती हैं...?"
"हाँ बौआ वही घर में सब चलाते रहता है तो वही देखते हैं ।"
ट्रेन के साथ-साथ फ़िल्म की कहानी भी आगे बढ़ती रहती है।और वो दृश्य चल रहा होता है जब माँझी थककर हार मान लेता है और कहता है अब नहीं तोड़ूँगा पहाड़...।तब उसको यह प्रतीत होता है कि उसकी दिवंगत पत्नी फगुनिया उसके सामने आई है और वो उसे समझा रही है कि तुम हार कैसे मान सकते हो...?इस दृश्य को देखकर दादी चौंक जातीं हैं और आलोक से पूछती हैं कि ,
"ये तो मर गयी थी ना ...!फिर ज़िंदा कैसे हो गयी...?"
तो आलोक समझाते हुये बोलता है,
"नहीं मामा ये ज़िंदा नहीं हुई है ।माँझी को ऐसा लग रहा है कि वो आ गयी है और उसको समझा रही है कि वो हार नहीं सकता।उसने पहाड़ को हराने की कसम खाई है।"
"हाँ बौआ लगता ही है कि वो हमारे सामने आ गए हैं।बहुत बार जब हम भी उनकी कुर्सी अगोर के बैठे रहते हैं तो हमको लगता है कि वो कुर्सी पर आकर बैठ गए हैं और बोल रहे हैं कि यहाँ क्यों बैठी हो जाओ खाना-पीना खाओ घर के बाकी लोगों से बात-चीत करो....।और जब हम कुछ बोलते हैं तो बिना जवाब दिए वो फिर से गायब....।बौआ उस समय तो मेरा कलेजा भमहोरने (कलेजे में उद्वेग) लगता है।लेकिन क्या कर सकते हैं।जैसे-तैसे उनके बिन जी रहे हैं।कभी-कभी सोये हुए भी लगता है कि वो सामने खड़े हैं जब आँख खोलती हूँ तो गायब हो जाते हैं।उसके बाद मुझे नींद नहीं आती।केवल रोना आता है।भगवान् खूब अन्याय किये हैं बौआ हमारे साथ।पहले हमही को उठाना था ।आ नै तो जल्दी उनके साथ कर देते........।"
दादी के बोलने में इतनी करुणा थी कि आलोक अपनी आँखों पर काबू नहीं रख पाया आलोक आसु और कंपार्टमेंट के एक दो और लोग अपनी आँखें पोंछते नजर आ रहे थे।दादी खुद तो बात-बात पर रो ही रही थीं इस बार तो पूरा कम्पार्टमेंट उनके गम में रो रहा था।खैर आलोक इस परिस्थिति को टालने के लिए फ़िल्म के आगे की कहानी बताने लगा और इस तरह हँसते-रोते फ़िल्म के साथ-साथ दादी की भी प्रेम-कहानी आलोक और आसु ने ना केवल सुनी बल्कि महसूस भी की।थोड़ी ही देर में मोकामा आने वाला था तो आलोक और आसु अपना बैग ठीक करने लगे।दादी का इन दोनों से विशेषकर आलोक से इन दो ढाई घंटों में कुछ ज्यादा ही स्नेह हो गया ....।उन्होंने पूछा,
"मोकामा आने वाला है क्या बौआ...?"
"हाँ मामा अब 5 मिनट में मोकामा आ जायेगा....।"
"ठीक है तब आराम से जाना।घर स्टेशन से ज्यादा दूर तो नहीं है ना...?"
"नहीं मामा,बस एकाध किलोमीटर पर ही हमदोनो का घर है।पैदल ही चले जाते हैं...।"
"ठीक है जाओ ।तुमलोग बहुत अच्छे हो।बहुत अच्छा लगा तुमलोगों से बात करके।बहुत दिन बाद किसी से इतना बात किये हैं बौआ।घर में किसको उतना फुरसत है जो हमसे आके बात करेगा।बस हम अकेले उनका कुर्सी के पास बैठल रहते हैं।किसी तरह दिन काटते रहते हैं।"
"नै मामा ऐसा क्यों बोल रही हैं।ऐसे मत रहिये घर में सब से बातचीत करते रहिये तब मन हल्का रहेगा ।अकेले रहेंगी तब और ज्यादा सोचती रहेंगी ।और डॉक्टर जो दवाई दिया है उसको टाइम से खाइयेगा।ज्यादा मत रोइयेगा ।अभी आपको बहुत दिन बचना है।हम अपना बिआह करके अपनी पत्नी को आपसे मिलाएंगे जरूर।"
"हाँ बौआ जरूर आना इन्दूपुर में किसी से भी पूछ लेना इनरदेव साव का घर कौन सा है वो बता देगा।"
"ठीक है मामा ..,अब चलते हैं आशीर्वाद दीजिये...।"
"हाँ बौआ जाओ दोनोलोग खूब तरक्की करो और जल्दी से शादी-बिआह बाल-बच्चा हो जाये।हमेशा भरल-पुरल रहो...।"
दादी ने दोनों हाथ ऊपर उठा कर दोनों को खूब आशीर्वाद दिया।
आज आलोक और आसु ने एक अद्भुत प्रेम का नजारा देखा था।दोनों ट्रेन से उतर के चुपचाप अपनी सोच में बहे जा रहे।उन्हें बस यही लग रहा था कि कितना प्यार भरा होता है दो लोगों के जीवन में और जब वो प्यार टूटता है तो कितना दर्द होता है एक-दूसरे को।फिल्मो में दिखाई जाने वाली बातें आज हकीकत में उन्होंने महसूस की थी।उनके बारे में सोचते-सोचते आसु को अपनी दादी का ख्याल आया।वो अपनी दादी से ज्यादा बात नहीं करता था।वही क्या उसके घर का कोई भी सदस्य उसकी दादी से ज्यादा बातें नहीं करता था।उसके दादाजी का तो देहांत 12 वर्ष पहले ही हो गया था जब आसु बहुत बच्चा था।उसे ध्यान आया कि दादी भी उस समय खूब रोई थीं ।दादी को भी ट्रेन वाली दादी जितना ही दर्द होगा।एक तो दादा जी से बिछड़ने का ऊपर से घर में भी कोई ढंग से बात नहीं करता।उसने ये सोच लिया था कि अब जब भी वो छुट्टी आएगा तो उनके साथ भरपूर वक़्त बिताएगा.....।और इस तरह से अलोक और आसु दोनों अपने मन के जाल में उलझे हुए से अपने-अपने घर पहुँच गए...।