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मैं चरित्रहीन थी न.....!

मैं चरित्रहीन थी न.....!

मैं चरित्रहीन थी न......!
मई महीने में जिस तरह गर्मी अपने चरम पे होती है ।सूर्य जिस तरह अपना महत्तम तापमान बनाये रखता है ।ठीक वही दशा मध्य-मई में दसवीं की परीक्षा दे चुके विद्यार्थियों की भी होती है।उनका ह्रदय भी इस महीने में अपने सर्वाधिक वेग से धड़कते रहता है।अपनी साल भर की मेहनत का फल कैसा होगा इस सोच में उनकी दशा किसी जवान कुंवारी लड़की के बाप से कम नहीं होती ।जिस तरह एक कुंवारी लड़की का बाप हमेशा इस चिंता में डूबा रहता है कि उसके लड़की की शादी मन काबिल लड़के से हो पाएगी कि नहीं ठीक उसी तरह विद्यार्थियों को भी यही लगता है उनकी साल भर की मेहनत का उन्हें मनोनुरूप फल मिलेगा या नहीं? आनंदी की दसवीं कक्षा का परिणाम भी आज आया था। वो पास तो हो गयी थी लेकिन द्वितीय श्रेणी से ।उसके अंक काफी कम थे। अपनी कक्षा में वो काफी पीछे हो गयी थी। ऐसा नहीं था कि आनंदी बहुत मेधावी छात्रा थी और उसके अंक कम आये थे।थी तो वो कमजोर ही लेकिन मेहनती जरूर थी। बिना ट्यूशन उसने सरकारी स्कूल के शिक्षकों द्वारा दी गयी शिक्षा और अपनी मेहनत के बल पर इतने अंक अर्जित किये थे । शुरू से ही गणित में कमजोर रही आनंदी को बोर्ड परीक्षा में भी गणित ने खासा परेशान किया और परिणाम आने पर लज्जित करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी ।अगर दस-बारह अंक भी कम आये होते तो आनंदी अनुतीर्ण जो गयी होती ,लेकिन.....। आनंदी ,नाम तो उसका रख दिया था उसके माँ-बाप ने लेकिन ईश्वर को ही शायद उससे कोई शत्रुता थी। नाम के ठीक विपरीत आनंदी कभी भी खुश नहीं रह पायी थी। बचपन में जब से होश संभाला अभावों में ही पली-बढ़ी।आनंदी के एक और बहन भी थी जो कि उससे छह साल छोटी थी। उसकी छोटी बहन जब दो साल की हुई तभी उसके पिता का देहांत हो गया। उसके पिता को वैसे था तो मधुमेह रोग,लेकिन अत्यधिक मदिरा-सेवन के कारण उनका शरीर विभिन्न रोगों के लिए अच्छा उर्वरक स्थल बन गया था। उन्हें कई बीमारियों ने घेर लिया था और काफी लंबे इलाज के बाद ,काफी ज्यादा धन व्यय के उपरान्त उनका महाप्रस्थान हो गया। आनंदी के पिता के पास जमीन-जायदाद यूँ तो ज्यादा थी नहीं ,लेकिन जितनी भी थी वो इलाज में काफी सस्ते में बेचनी पड़ी।आनंदी के दो चाचा भी थे और सभी का परिवार पृथक था।बड़े चाचा को उसके परिवार से ज्यादा लगाव पहले से ही नहीं था लेकिन छोटे चाचा ,जो कि उसके पापा से भी छोटे थे,आनंदी को बहुत प्यार करते थे।और बड़े भाई के गुजरने के बाद कुछ दिनों तक उन्होंने आनंदी के परिवार की अच्छी देख-रेख भी की।लेकिन एक बात तो आज के युग में पूर्णतया सत्य है कि आदमी की जब तक शादी नहीं होती तब तक वह एक परिंदे की भांति स्वच्छंद उड़ाने भरता रहता है।लेकिन ज्यों ही उसकी शादी हुई तो उसकी दशा खूंटे से बंधी गाय की तरह हो जाती है।खूंटे से बंधी रस्सी की जितनी ढील होती है उतनी ही दूर वह घूम फिर सकता है। अगर खूंटे से ज्यादा खींचतान की गयी तो शादीरुपी रस्सी के टूटने का डर बढ़ जाता है।ठीक यही हालात आनंदी के चाचा की भी थी। जब तक आनंदी के पिता जिन्दा थे तब तक मानो उसकी चाची ने रस्सी की लंबाई बढ़ा राखी थी और आनंदी पर सारा लाड-प्यार और उसके परिवार से ज्यादा मेलजोल को उसकी चाची नजरअंदाज कर रही थी।लेकिन उसके पिता के देहांत के बाद पता नहीं उसकी चाची को किस बात की चिंता सताने लगी ।उन्होंने रस्सी छोटी कर दी और छोटे चाचा को आनंदी के घर से कम ताल्लुक रखने की हिदायत दे दी।आनंदी के छोटे चाचा मोहन सिंह ने अपनी पत्नी को मनाने का काफी यत्न किया लेकिन वो विफल रहे।उन्होंने आनंदी के घर आवागमन काफी कम कर दिया।फलस्वरूप आनंदी के परिवार की दिक्कतें काफी बढ़ने लगीं। भले ही आनंदी के पिता सोहन सिंह शराब पीते थे लेकिन वो कमाई भी अच्छी कर लेते थे। और चार लोगों का परिवार उसमे काफी अच्छे से जीवन बसर कर लेता था।जब तक सोहन सिंह ज़िंदा थे तब तक आनंदी के परिवार की हालत उस पथिक की तरह थी जिसके पूरे मार्ग में छायादार वृक्ष लगे हों और मार्ग भी बिलकुल सुगम हो।जिसे अपनी यात्रा के सन्दर्भ में तनिक भी चिंता नहीं करनी पड़ती हो।पिता की मृत्यु के बाद जब मोहन सिंह ने संभाला तो ऐसा लगा मानो पूरा रास्ता अब छायादार न रहा ,न ही मार्ग उसी तरह सुगम बना है लेकिन फिर भी एक नियत समय और निश्चित दूरी के उपरान्त थोड़ी छाया पाकर मार्ग को पार किया जा सकता है।लेकिन उसके चाचा द्वारा भी असहयोग दिखाने के बाद उसके परिवार की दशा अब उस राही की तरह हो गयी जिसका मार्ग,मार्ग न होकर कोई अंधी गुफा हो गयी हो ।सर्वत्र अन्धकार का आधिपत्य हो गया और आगे क्या करना है कहाँ जाना है कुछ नहीं सूझ रहा था। तीन सदस्सीय परिवार बिलकुल ही असहाय हो गया था।लेकिन आनंदी की माँ जो कि सिलाई और कढ़ाई-बुनाई की कला में काफी कुशल थी, ने किसी तरह एक सिलाई मशीन खरीद ली और अपनी दोनों बच्चियों का पालन-पोषण करने लगी।आनंदी उस समय थी तो महज आठ साल की लेकिन समझदारी उसमे कुछ इस तरह भर गयी थी मानो वो अपनी माँ के समकक्ष हो।बात-चीत,सूझ-बूझ से आनंदी अपनी उम्र से कहीं ज्यादा बड़ी लगने लगी थी।शायद समय-रुपी दवा ने उसे समय से पहले ही बड़ा कर दिया था। आनंदी घर की परिस्थिति से भली-भांति अवगत थी।उसने पिता के देहावसान के पहले जो आराम देखा था, जो सुख के दिन बिताये थे उसे किसी सुखद स्वप्न की भाँति समझकर भूल चुकी थी और अब वो घर तथा व्यवसाय के कार्यों में यथासंभव अपनी माँ का हाथ बटाती थी।। धीरे-धीरे आनंदी बड़ी होने लगी थी।हालाँकि मानसिक तौर पर तो आनंदी बहुत पहले ही बड़ी हो चुकी थी लेकिन अब उसका शारीरिक विकास काफी तेज़ी से हो रहा था।शरीर अब पूर्ण आकर लेने लगा था और आनंदी अब बच्ची ना रहकर एक किशोरी हो चुकी थी।चूँकि आनंदी के माता-पिता दोनों ही सांवले थे इसलिए आनंदी भी श्यामवर्णा ही हुई ।बचपन में तो वह काफी काली दिखती थी लेकिन किशोरावस्था में आने के बाद उसके चेहरे की आभा में काफी परिवर्तन आया।फिर भी अपने रंग और रूप को लेकर आनंदी के अंदर एक हीन-ग्रंथि हमेशा सक्रीय रहती थी।उसकी कक्षा की बाकी लड़कियाँ सौंदर्य से पूर्ण थीं और उनके बीच आनंदी काफी असहज महसूस करती थी।हाँ आनंदी के चेहरे में कुछ हो ना हो उसकी आँखे बड़ी सुन्दर थीं।बड़ी-बड़ी दोनों आँखें किसी को भी मोहित कर सकती थीं।उसकी आँखें किसी को भी पल भर में अपना आसक्त बना सकती थीं। हर वक़्त उसे देखकर लगता था जैसे इसकी आँखें ही बोल पड़ेंगीं।लेकिन आनंदी अपनी इस विशेषता से महरूम थी।वो बस हमेशा अपने वर्ण को लेकर ही चिंतित रहती थी। खैर.......,अपने रूप से भी ज्यादा चिंता अब उसे अपने कैरियर को लेकर थी।पहले से ही गणित में कमजोर आनंदी के अंक मैट्रिक में काफी कम आये थे।आगे क्या करना है,इसके लिए कोई उसका मार्गदर्शक नहीं था।आनंदी काफी उहापोह में थी कि ग्यारहवीं में कौन सा विषय चुनकर पढ़ाई की जाए।ज्यादातर दोस्तों ने आगे का सफर गणित के साथ तय करने की सोची।कुछ ने जीव-विज्ञान को साथी बनाया तो कुछ कला में प्रवेश पा गए।आनंदी ने जब इस विषय में अपनी माँ से सलाह लेनी चाही तो माँ ने कहा,"मुझे क्या पता बेटी ,जो भी करना है तुम्हे करना है।पढ़ना तुम्हे पड़ेगा ,जो पढ़ सकती हो वही विषय चुनो।मैं तो सोच रही हूँ कोई अच्छा लड़का मिल जाए तो जल्दी से किसी तरह तुम्हारी शादी कर दी जाए।अब बच्ची तो रही नहीं।मैट्रिक तो कर ही लिया है तुमने।मेरी शादी तो जब मैं ग्यारह साल की थी तभी हो गयी थी।"इतना सुनते ही आनंदी का चेहरा शर्म से लाल हो गया।वो तुरंत वहां से जाने लगी और जाते-जाते मंद कंठ-स्वर में बोल गयी,"तुम भी ना माँ कुछ भी बोलती रहती हो............" आनंदी के शहर में एक मास्टर जी थे जो कि बारहवीं तक गणित की ट्यूशन पढ़ाते थे।साठ साल उनकी अवस्था हो गयी थी लेकिन फिर भी काम पूरे प्राणपण से करते थे।कुछ ही सालों में वो सरकारी नौकरी से निवृत भी होने वाले थे।वो बगल वाले गाँव में जाकर पहले दिन भर स्कूल में क्लास लिया करते थे।फिर शाम में बच्चों को ट्यूशन भी पढ़ाते थे।आनंदी की एक सहेली दिव्या जो कि आनंदी की बहुत अच्छी दोस्त थी,ने उसे बताया कि "वो बहुत अच्छा गणित पढ़ाते हैं और विज्ञान के बाकी विषय भी ठीक-ठाक पढ़ा देते हैं।तुम अगर चाहो तो उनसे पढ़ लेना।तुम अपना गणित कमजोर होने की चिंता मत करो वहां तुमसे भी कमजोर छात्र पढ़ने आते हैं और धीरे-धीरे वो पढ़ने में काफी अच्छे होते जा रहे हैं।"आनंदी को उसका सुझाव अच्छा लगा और उसने रामाश्रय सर से पढ़ने के बारे में सोच लिया।उसने दिव्या को कहा की पहले वो एक बार उसके बारे में उनसे बात कर ले.....। रामाश्रय सर रेलवे कॉलोनी में रहते थे।रेलवे कॉलोनी आनंदी के घर से करीब एक किलोमीटर की दूरी पर था।रामाश्रय सर का शरीर अब जिस अवस्था में पहुँच चुका था उससे भी जीर्ण उनका वह किराए का क्वार्टर था जो उन्होंने रेलवे कॉलोनी में ले रखा था।सारे क्वार्टर बीसवीं सदी के शुरूआती दसकों में ही बने थे।खैर ये क्वार्टर आनंदी के लिए कोई नया दृश्य नहीं थे वो पहले भी बहुत सारे प्रयोजनों से यहां आ चुकी थी।उसने आखिर फैसला कर लिया था कि वो इंटर में गणित विषय चुनकर रामाश्रय सर के पास ही पढ़ेगी।बारहवी में उसने अपने शहर के श्री कृष्णा मारवाड़ी विद्यालय में नामांकन लिया और ट्यूशन के लिए रामाश्रय सर के पास पहुंची। पहले दिन जब एक घंटे की क्लास ख़त्म हो गयी तो बाकी सारे बच्चों को जाने के लिए बोलकर सर ने आनंदी को रोक लिया।उन्होंने आनंदी से कहा,सुनने में आया है तुम्हें गणित से बहुत डर लगता है?" "हाँ सर बचपन से ही मुझसे मैथ्स बहुत कम बन पाता है।" "अच्छा...! तो ये बताओ तुम्हें सबसे ज्यादा मजा किस विषय को पढ़ने में आता है और किस विषय को तुम सबसे ज्यादा समझ पाती हो?" "सर कोई भी याद करने वाला विषय हो ना उसको मैं पांच बार ,दस बार रट कर याद कर लेती हूँ।साइंस तो मुझे समझ भी आ जाता है।लेकिन मैथ में मैं बिलकुल पजल हो जाती हूँ।मुझसे अगर एक सवाल नहीं बन पाया तो उसके बाद तो कोई भी प्रॉब्लम सोल्व ही नहीं हो पाता है।" "अच्छा एक बात बताओ।तुम्हे मैथ बनाने से पहले ही ये लगने लगता है न कि तुम नहीं बना पाओगी इसे ये बहुत ही ज्यादा भारी है....?" "हाँ सर...।" "और अगर कोई ये कह दे कि ये वाला ना बहुत ही भारी चैप्टर है तो तुम तो उसको स्टार्ट ही नहीं करना चाहती....?" "हाँ सर,मुझे ये लगता है कि जब इससे ये नहीं बन पा रहा है तो मुझसे ये कैसे बनेगा और सच में मैं अगर कोशिश भी करती हूँ तो नहीं बन पाता है।" "हाँ,तो आज से तुम ये जान लो कि कोई भी मैथ्स हो वो तुमसे पलक झपकते ही बन जाएगा।बस तुम्हे यही सोचना है कि ये मुझसे बन जायेगा तुम ये सोचो ही मत कि किससे ये बना है और कौन-कौन इसको बनाने में विफल हो गया है।" रामाश्रय सर गणित के अच्छे शिक्षक तो थे ही साथ-साथ उनकी बढ़ती उम्र और उसी अनुपात में उनके बढ़ते अनुभव ने उन्हें एक अच्छा मनोविज्ञानी भी बना दिया था।वो अब सही-सही कारण जान चुके थे आनंदी के गणित में कमजोर होने का।इसलिए मैथ्स पढ़ाने से पहले आनंदी को अच्छा मार्गदर्शन देना जरुरी था।सबसे पहले उसमे ये विचार भरने की जरुरत थी कि वो मैथ्स को आसानी से बना सकती है।वास्तव में रामाश्रय सर एक शिक्षक ही नहीं थे वो असली गुरु थे।जो कि ना सिर्फ पाठ्यक्रम के विषयों की जानकारी देता हो बल्कि जिंदगी के हरेक पाठ को अच्छी तरह पढ़ाता हो।यूँ भी किसी ने कहा है हम जैसा सोचते हैं वैसा ही हम जो जाते हैं।तो सर ने सबसे पहले शुरुआत की आनंदी में ये सोच भरने की कि वो मैथ्स बना सकती है ।बना ही नहीं सकती बल्कि बड़ी ही आसानी से बना सकती है।और साथ-ही-साथ उन्होंने आनंदी को यह भी कह दिया कि उसे फीस की चिंता करने की भी कोई जरुरत नहीं है।आनंदी की सहेली दिव्या ने रामाश्रय सर को आनंदी के घर के बारे में सबकुछ साफ़-साफ़ बता दिया था। आनंदी अब पूरी तरह से चिंतामुक्त हो गयी थी।उसे अब यह लगने लगा था कि कोई सच्चा मार्गदर्शक मिल गया है।अब आनंदी से मैथ्स आसानी से बनना शुरू हो गया था।रामाश्रय सर उसको कक्षा में सबसे पहले बैंच पर बिठाते थे और हरेक सवाल अपने सामने बनवाते थे।धीरे-धीरे आनंदी का आत्मविश्वास काफी बढ़ने लगा और अब वो कक्षा के मेधावी विद्यार्थियों में गिनी जाने लगी।उसी का एक सहपाठी था प्रवीण।सचमुच में वो प्रवीण था।विशेषकर गणित के सवाल तो वो पालक झपकते ही बना देता था।रामाश्रय सर भी ज्यादातर सवाल उसी से हल करवाते थे और बाकी विद्यार्थियों को भी उन्होंने बोल रखा था कि कोई भी सवाल पहले उससे पूछ ले अगर प्रवीण नहीं बना पाता तो रामाश्रय सर उसको हल करते थे।आनंदी की भी प्रवीण से अच्छी दोस्ती हो गयी थी।लेकिन वो कभी भी उससे कोचिंग के बाहर बात नहीं करती थी।एक तो वो अपने मोहल्ले से इतनी दूर पढ़ने आती थी इसी पर लोगों ने तरह -तरह की बातें शुरू कर दी थीं।ऊपर से वो अगर प्रवीण के साथ ज्यादा घुलती-मिलती तो पता नहीं लोग और क्या-क्या बोलते.......! आनंदी की बारहवीं की परीक्षा नजदीक थी और इसलिए अब वो रामाश्रय सर की कोचिंग पर ज्यादा समय बिताने लगी थी।वो वहीं बैठ कर स्वाध्याय करती थी और अगर कोई प्रॉब्लम हो तो वो पूछ भी लेती थी।ट्यूशन ख़त्म होने के बाद वो अकेली ही वहां बैठ कर पढ़ाई करती रहती थी।यह बात रेलवे-कॉलोनी के कुछ उचक्कों को पता चल गयी।उन्होंने अब रास्ते में आनंदी पर तंज कसना शुरू कर दिया।"ऐसा क्या है उस साठ साल के बूढे में जो हममे नहीं ......!"सुनील ने कहा।सुनील आनंदी के ही मोहल्ले का था और रेलवे कॉलोनी के लड़कों के साथ नशा किया करता था।बाकी के किसी लड़के को आनंदी पहचानती नहीं थी।उसने कोई जवाब नहीं दिया और अपने रास्ते पर बढ़ती रही।इतने में एक और लड़के ने कहा,"कभी जवानो का स्वाद भी लेलो क्या रखा है उस बूढ़े में.......।"आनंदी का चेहरा शर्म से लाल हो गया।उसे ऐसा लग रहा था जैसे एक किलोमीटर का रास्ता जल्दी से ख़त्म हो और वो घर पहुँच जाए।उन सब की बातें सुनकर उसकी आँखों से आंसुओं की अविरल धारा फूट पड़ी।उसे लग रहा था कोई इन नशेड़ियों के इस तीखे तंज से उसकी रक्षा कर दे ।लेकिन ऐसा हुआ नहीं।आनंदी तेज कदमो से अपने घर की ओर बढ़ती रही लेकिन जब तक रेलवे कॉलोनी समाप्त नहीं हुई वो असामाजिक तत्व उसका पीछा करते रहे और भद्दी-भद्दी बातें करते रहे....। आनंदी ने अपने घर जाकर माँ को सबकुछ बता दिया।उसने ये भी समझाया कि वो वहां जाना बंद नहीं कर सकती है।उसके दो सालों की मेहनत बर्बाद हो जायेगी ।उसकी माँ ने अपनी बेटी को मेहनत करते देखा था और वो भी नहीं चाहती थी कि उसकी बेटी की मेहनत बर्बाद हो जाए।आनंदी ने अपनी माँ से कहा ,"माँ उन लड़कों में एक सुनील भी था।तुम जाकर ज़रा शीला चाची को कहो ना कि वो उन लड़कों के साथ ना रहे वो अच्छे लड़के नहीं हैं ।" "ठीक है बेटी मैं जाकर एक बार उनसे बात करती हूँ।" चूँकि आनंदी की माँ उसकी पढ़ाई को लेकर बहुत चिंतित थी और आनंदी ने अपने क्लास में टेस्ट के बारे में बताया था कि हमेशा वो पहला या दूसरा स्थान पाती है तो इससे उसकी माँ की अपेक्षाएं और बढ़ गयी थीं।उसकी माँ अविलंब शीला चाची के यहाँ गयी और उन्होंने उनके सामने वो सबकुछ बताया जो आनंदी के साथ हुआ था।कहते हैं ना कीचड़ पे पत्थर मारोगे तो खुद ही पड़ेगा।लेकिन यहां तो पत्थर भी नहीं मारा गया था फिर भी पूरा कचरा खुद पे ही फ़ैल गया।जी हां....,सुनील की माँ ने कुछ ऐसा जवाब ही दिया आनंदी की माँ को कि उसकी माँ कुछ बोल ना सकी।उसने कहा,"वाह जी .......!कितनी सती-सावित्री बेटी के लिए आप मेरे बेटे को कलंकित करने आ गयी हैं।कुछ पता भी है अपनी बेटी के बारे में आपको....?क्या-क्या गुल खिला रही है वो उस बूढ़े मास्टर के साथ? पूरा रेलवे कॉलोनी में कहीं नाक नहीं दिया जा रहा है।बेटी अपनी नालायक है और चली आयीं मुंह उठा के मेरे बेटे को खराब बताने...।" आनंदी की माँ को काटो तो खून नहीं.....।उनका शरीर जड़ हो गया ।बिना एक शब्द बोले वो वहां से वापस आ गयीं।वापस आकर उनका मुंह बिलकुल उतर चुका था।आनंदी समझ गयी कि वहां क्या हुआ है।आनंदी की माँ ने रुंधे हुए स्वर में कहा,"बेटा तू वहां जाना छोड़ दे हमारी बहुत बदनामी हो रही है सब तरफ...।" "माँ आप मेरे बारे में क्या सोचती हैं अगर आप भी वही सोचती हैं जो बाकी सब सोच रहे हैं तो मैं अब कभी वहाँ नहीं जाऊँगी।" "नहीं बेटी मुझे पता है तेरी परीक्षा नजदीक है और तुम्हे ज्यादा मेहनत करने की जरुरत है।लेकिन सोच बेटी तेरे पापा भी नहीं हैं ।तेरे लिए लड़का कौन ढूंढेगा? चल अगर किसी ने ढूंढ भी दिया और इनलोगों ने कुछ गलत बता दिया तो तेरा रिश्ता कैसे होगा बेटी?" "माँ आप इतनी चिंता क्यों कर रही हैं अभी मेरी शादी में बहुत समय है।आप मेरी शादी की चिंता मत करिये।अभी तो मुझे बस अच्छे नंबरों से बारहवीं पास करनी है और ग्रेजुएशन में एडमिशन लेना है।मैं वहां जाना बंद नहीं करुँगी माँ जिसको जो बोलना है बोलते रहे।" उसकी माँ ने कोई जवाब नहीं दिया।अब तो माँ को भी यही लगने लगा था कि आनंदी अपनी नाव डूबने नहीं देगी।चाहे नदी में कितना ही तूफ़ान कितनी ही लहरें क्यों ना आये वो अपने नाव को किनारे लगा ही लेगी।कल फिर आनंदी रामाश्रय सर के पास पढ़ने गयी और जब क्लास ख़त्म हुई तो उसने पिछले दिन की सारी बातें उन्हें बता दी।उन्होंने कहा चिंता करने की कोई बात नहीं मैं अब तुम्हें छोड़ आऊँगा ।और उसी दिन से वो आनंदी को पूरी रेलवे कॉलोनी पार करा दिया करते थे।या तो उन लड़कों को रामाश्रय सर से कोई डर था, या फिर किसी परहेज के कारण उस दिन के बाद से उन्होंने आनंदी को कुछ नहीं बोला।जितनी गति से परीक्षा नजदीक आ रही थी उसी वेग से आनंदी की मेहनत भी बढ़ती गयी।आनन्दी के सारे पेपर बहुत ही अच्छे हुए,विशेषकर गणित का एग्जाम तो उसका बहुत ही अच्छा हुआ। गणित को काफी बेहतर करने के बावजूद आनंदी ने यह तय कर लिया था कि वो स्नातक में इतिहास विषय को चुनकर पढ़ाई करेगी और बी.पी.एस.सी की परीक्षा पास करना अब उसके जीवन का अनंतिम लक्ष्य बन गया था।आनंदी के इम्तिहान ख़त्म हो चुके थे फिर भी वो रामाश्रय सर के पास जाकर पढ़ाई कर रही थी।इन दो सालों में आनंदी न सिर्फ पढ़ाई में मजबूत हुई बल्कि अब उसका आत्मविश्वास भी काफी बढ़ गया था।अब उसे कोई भी लक्ष्य ज्यादा मुश्किल नहीं लगता था।अब चूँकि उसने बी.पी.एस.सी के बारे में ठान लिया था तो बिना इण्टर का परिणाम आये ही वो उसकी तैयारी में लग गयी।रामाश्रय सर ने उससे पूछा कि अगर तुम्हारे अंक इण्टर में अच्छे आये तो पटना में एडमिशन लोगी ना..? "नहीं सर,मैं माँ को छोड़कर पटना में नहीं रह सकती.....!मैं यहीं रहकर अपना ग्रेजुएशन कम्पलीट करुँगी और साथ-ही-साथ बी.पी.एस.सी की तैयारी भी करती रहूंगी।माँ को अकेले केवल छुटकी के साथ छोड़ना अच्छा नहीं होगा।" "एक बात कहूँ....?तुम यहीं पर कुछ बच्चों को क्यों नहीं पढ़ा लेती इससे तुम्हे आगे किताबें वगैरह खरीदने में सहूलियत होगी और माँ की भी मदद हो जायेगी। तुम्हारी छुटकी भी तो धीरे-धीरे बड़ी हो रही है उसकी पढ़ाई में भी तो खर्चे बढ़ेंगे न...।" "हाँ सर आप सही कह रहे हैं मैं एकाध घंटे तो बच्चों को पढ़ाने के लिए निकाल ही सकती हूँ।" आनंदी वहीं उनके पास छोटे बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने लगी और खुद भी वहीं बैठकर पढ़ती थी।आनंदी के बारहवीं का परिणाम आ गया और सच ही कहा गया है कि मेहनत बेकार नहीं जाती।आनंदी की मेहनत भी खूब रंग लायी और उसे पूरे अनुमंडल में सबसे ज्यादा नंबर आया।कई शिक्षण संस्थानों द्वारा आनंदी को सम्मानित भी किया गया।आनंदी चाहती तो आराम से पटना विमेंस कॉलेज में एडमिशन ले सकती थी।लेकिन अपनी माँ की देख-रेख और अपनी बहन की पढ़ाई को भी वो सही दिशा दे पाये इसलिए उसने मोकामा के ही राम रतन सिंह कॉलेज में एडमिशन लिया और वहीं क्लास भी जाने लगी। आमतौर पर तो इस कॉलेज में कोई क्लास करने नहीं जाता था वो भी आर्ट्स की क्लास तो बिलकुल नहीं लेकिन आनंदी की लगन से प्रभावित होकर प्रोफेसर डॉक्टर नवल सर ने उसे कह दिया था कि कोई आये ना आये,रूटीन में उनकी क्लास हो न हो,अगर आनंदी आ गयी तो वो रोज क्लास लेंगे।आनंदी जितनी लगन से बारहवीं में पढ़ रही थी उससे कहीं ज्यादा मेहनत अब वो करने लगी थी। अगर हमारे घर के बगल वाला आदमी भूखा सो रहा है तो हमें उससे कोई फर्क नहीं पड़ता।हम ये सोचते हैं कि निकम्मा है कोई काम तो करता नहीं तो खायेगा क्या....?एकबार उससे पूछने तक भी नहीं जाते कि आखिर बात क्या है।लेकिन वहीं अगर उसके घर में रोज स्वादिष्ट भोजन बनने लगे,रोज मिठाइयां आनी शुरू हो जाएँ तो हमारे नाक में उसकी सुगंध जाते ही हमारे माथे पर बल पड़ जाता है।हम इस सोच में पड़ जाते हैं कि कैसे आखिर इस निकम्मे के घर में इतनी खुशहाली आ सकती है।और फिर हमारा दिमाग अनुमान लगाना शुरू करता है।हो न हो जरूर इसने कोई गलत काम करना शुरू कर दिया है।और इतने से ही हम संतुष्ट नहीं बाकी लोगों को भी अपने मन में पैदा हुए उसके काले कारनामे से अवगत करा देते हैं। ठीक ऐसा ही हुआ आनंदी के साथ भी।जब उसके पिता की मृत्यु हुई तो सभी लोगों ने बस उनके चौथे पर जाकर औपचारिकता पूरी कर दी।बाद में उसके छोटे चाचा के अलावा कोई भी उसका और उसके परिवार का हाल लेने नहीं आया।और ना ही किसी ने उसे और मेहनत करने की सलाह दी कक्षा दस में कम अंक आने पर।लेकिन वही आनंदी जब बारहवीं में पूरे तहसील में टॉप कर गयी तो सब की आँखों में खटकने लगी।सुनील जो कि आनंदी पर भद्दे शब्दों की बौछार कर अपने-आप को खुशियों की नदी में गोते लगाता महसूस करता था इण्टर में फेल हो गया था।अब उसके पास तो बोलने को कोई शब्द नहीं बचे थे लेकिन उसकी माँ को ये बर्दाश्त नहीं हुआ और उनके शब्दकोश में तो जैसे कई शब्द और जुड़ गए और उन शब्दों से वो आनंदी को परिचित कराने के लिए बेताब रहती थीं ।जब भी आनंदी पर उनकी नजर पड़ती तो जैसे किसी रश्म-रिवाज में दूल्हे या दुल्हन के ऊपर अक्षत फेंकते हैं वो आनंदी पर दो-चार कटु शब्द उड़ेल देती थीं। "मास्टर की रखैल बनकर टॉप करने से तो अच्छा है मेरा फेल हुआ बेटा ।कम-से-कम अगली बार पास तो होने की उम्मीद है।तुम जो इज्जत मास्टर के पास रख आई हो वो कैसे वापस होगी ।" फिर कभी आनंदी की माँ को सुना के बोलती "ज़रा अपनी छोटी बेटी का भी तो ख़याल करो।अरे इसका क्या है कोई नहीं ब्याहेगा तो मास्टर के साथ ही रह लेगी पर जितनी बदनामी इसने कर रखी है ऐसे में छोटी बेटी से कौन ब्याह करेगा...?" शुरू में तो ये शब्द जैसे आनंदी को किसी बाण की तरह चुभे।ऐसी बात नहीं थी कि सुनील की माँ इकलौती ऐसी औरत थी जो आनंदी के बारे में भला-बुरा कहती थी, बाकी सारी औरतें भी पीठ पीछे बुराई किया करती थीं।आनंदी जोकि पहले से ही कलंक को अपना साथी बना चुकी थी,अब उसने ये मान लिया था कि ये सब एक कठिन मंजिल को हासिल करने वाले मुश्किल मार्ग में मिलने वाली बाधाएं हैं।ये वो काँटे हैं जिनसे उसे बचकर अपना सफ़र तय करना होगा।अगर कोई काँटा चुभ भी जाता है तो उसे निकालकर आगे बढ़ते रहने पर ही उसे मंजिल मिलेगी। खैर लोगों के ताने चलते रहे और चलता रहा वक़्त भी ।ग्रेजुएशन के पहले,दूसरे और अंतिम साल में भी आनंदी ने काफी अच्छे अंक लाये और कॉलेज में तो दूर-दूर तक कोई उसके समकक्ष नहीं था।साथ-ही-साथ जब आनंदी स्नातक के अंतिम साल में थी तो उसने बी.पी.एस.सी की परीक्षा भी दी थी।बी.पी.एस.सी की प्री और मेंस दोनों परीक्षाएं सफलता पूर्वक पास करने के बाद आनंदी साक्षात्कार भी दे चुकी थी और अंतिम मेधा सूची की प्रतीक्षा कर रही थी। बी.पी.एस.सी जैसी परीक्षा पास कर आनंदी ने अपने आलोचकों का मुँह बंद कर दिया।जब लोग उसके बारे में भला-बुरा कहते थे तब उसने जवाब में एक शब्द नहीं कहा।सारी बातों को अपने अंदर पचाती गयी और उन्ही बातों को याद कर अपने अंदर एक नयी सकारात्मक ऊर्जा का निर्माण कर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ती रही।कहते हैं ना कि कलम तलवार से ज्यादा ताक़तवर है,या अंग्रेजी में एक कहावत है,"द बेस्ट रिवेंज इस मैसिव सक्सेस" ।आनंदी ने ये साबित भी कर दिया। मेधा-सूची में आनंदी का नाम काफी ऊपर था और उसने पूरे बिहार में 465वां स्थान हासिल किया था।मेधा-सूची में नाम आने के बावजूद आनंदी ने अपने किसी भी आलोचक को कुछ नहीं कहा।आनंदी ज्ञानवान तो बचपन से ही थी लेकिन अब वो और भी ज्यादा नम्र हो गयी थी।कइयों को तो विश्वास नहीं हो पा रहा था लेकिन अखबार में खबर देखने के बाद उसके आलोचक अब उसके प्रसंशक बन गए थे और बधाई सन्देश लेकर घर आ रहे थे।कई औरतें तो ये तक कहने लगीं थीं कि बेटी हो तो आनंदी की तरह....।बिन बाप की बेटी ने कितने अच्छे से अपने माँ की सहायता की और पढ़ाई भी करती रही। अब समय आ गया था आनंदी को अपनी माँ को अलविदा कहने का।नहीं,वो ससुराल नहीं जा रही थी लेकिन अब उसे जाना था ट्रेनिंग करने के लिए....।ना चाहते हुए भी आनंदी को अपना घर और अपनी माँ को छोड़ना पड़ा।जाते-जाते वो छुटकी को समझा रही थी कि देखो अब तो मैं कभी-कभी ही आ पाऊँगी तुम माँ का ख़याल अच्छे से रखना और फिर आनंदी चली गयी अधिकारी बनने का प्रशिक्षण लेने के लिए। ट्रेनिंग के उपरान्त आनंदी की पोस्टिंग दरभंगा हुई।दरभंगा आनंदी के घर से 4 घंटे का रास्ता था।आनंदी वर्दी में कुछ अलग ही दिखती थी।उसकी देह का आकार इतना आकर्षक था कि वो किसी अभिनेत्री से कम नहीं लगती थी।अब उसका रंग भी सांवला ना रहकर थोड़ा गोरा हो गया था। और आँखे तो उसकी थी ही नक्काशी की हुई।तो आनंदी का मतलब अब था विद्वता, शक्ति और सौंदर्य से संपन्न लड़की।उसके ज्यादा सहपाठी तो थे नहीं लेकिन साथ में ट्रेनिग किये हुए उसके दोस्त उसको 'ब्यूटी विथ ब्रेन' बुलाते थे। एक दिन सुबह-सुबह आनंदी कर्पूरी चौक के पास वाले पार्क में दौड़ रही थी कि तभी उसको फोन आया कि किसी विधायक के भाई ने किसी ठेकेदार को मार दिया है।सुबह की मंद-शीतल हवा का आनंद लेने आई आनंदी खुद आंधी बनकर चमरहरा गाँव पहुँची,जहाँ समस्तीपुर के डी.एस.पी विशाल ठाकुर पहले से पहुँचे हुए थे।दरअसल चमरहरा गाँव समस्तीपुर और दरभंगा की सीमा पर था इसीलिए दोनोंलोग वहां जा पहुँचे। विशाल ठाकुर वहाँ गए तो थे क़त्ल का केस सुलझाने क लिए लेकिन वो खुद घायल हो गए।जी नहीं,उन्हें किसी ने गोली नहीं मारी थी।वो आनंदी की करिश्माई नजरों से घायल हो गए।आनंदी जब वहाँ पहुँची तब तक समस्तीपुर की पुलिस लाश को पोस्टमार्टम के लिए गाड़ी में रख चुकी थी।आनंदी ने पूछा,"जिसका खून हुआ क्या नाम है उसका सर...?" "व् व् ...." विशाल ठाकुर आनंदी के ऐसे आसक्त हुए कि वो कुछ बोल ही नहीं पा रहे थे।उन्होंने ये सुना था की दरभंगा मे कोई महिला डीएसपी है लेकिन वो ऐसी खूबसूरत होगी उन्हें ये अंदाजा नहीं था। "सर क्या नाम है इसका...?" "अरे ह ह हाँ....इसका नाम उपेन्द्र शाव है।" किसी तरह फिसलते और लड़खड़ाते जबान को संभाल के विशाल ने जवाब दिया। "ठीक है सर चूँकि ये चमरहरा का केस है तो इन्वेस्टीगेशन में मुझे आपकी और आपको मेरी मदद की जरुरत पड़ेगी इसलिए आप मेरा नंबर ले लीजिये।मेरा जो नंबर पुलिस डायरेक्टरी में है वो मैं हमेशा हेल्प लाइन के रूप में ही रखना चाहती हूँ।ओके सर अब मैं अब चलती हूँ ।जय हिन्द...।" आनंदी ने विशाल को सैल्यूट किया और फिर अपनी गाड़ी में अपने पूरे दल-बल के साथ वापस चली गयी।लेकिन विशाल बाबू अभी भी कहीं खोये थे ।जितनी दूर तक आनंदी की गाड़ी दिखी वो निहारते रहे।गाड़ी जब आँखों से ओझल हुई तब उनका ध्यान उनके हाथ में पड़े कागज़ के टुकड़े पर पड़ा जो अभी-अभी आनंदी उनके हाथ में थमा के गयी थी।कागज़ पर लिखे नंबर के साथ विशाल बाबू के आँखों की चमक बढ़ गयी।उनके चेहरे में एक नयापन आ गया।अपने हाथ में कागज का वो टुकड़ा अब उनकी जिंदगी का अनमोल खजाना मालूम हो रहा था......। पिछले पाँच सालों से विशाल बाबू नौकरी कर रहे थे और उनके घरवालों का बहुत ही ज्यादा दवाब था कि वो शादी कर लें।लेकिन उन्होंने हर बार यही कह के टाल दिया था कि कोई ढंग की लड़की तो मिल जाए पहले...!उन्हें आज लग रहा था जैसे उनकी तलाश ख़त्म हो गयी।लेकिन सबसे बड़ी समस्या ये थी कि वो आनंदी से इस सिलसिले में बात कैसे करें?उन्होंने उसके नंबर को मोबाइल में सेव किया और उस कागज के टुकड़े को अपने सारे जरूरी कागजात के साथ सुरक्षित रख दिया।उस मर्डर केस की जाँच तो चल ही रही थी तो उन्होंने सोचा क्यों ना इसी बहाने आनंदी से बात की जाए।उन्होंने तय किया कि वो आज आनंदी को फोन करेंगे।दिन भर इधर-उधर की भागदौड़ के बाद रात में करीब नौ बजे के आस-पास उन्हें समय मिला तो उन्होंने सोचा कि आराम से खाना खाकर आज आनंदी से बात की जायेगी।खाना-पीना भी हो गया।अब उन्होंने अपना मोबाइल निकाला और कॉन्टेक्ट्स में आनंदी लिखने क बाद उसका नंबर मोबाइल के स्क्रीन पर था।वो उसको कॉल करने के लिए ज्यों ही अपनी ऊँगली बढ़ा रहे थे उनका दिल जोर-जोर से धड़कने लगता था।इतने ज्यादा वेग से उनका दिल तब भी नहीं धड़का था जब पहली बार एक अपराधी गुट से इनकी मुठभेड़ हुई थी।लेकिन आनंदी को फोन लगाने में तो एक अलग किस्म का भय हो रहा था।बढ़ती धड़कनों ने जैसे उनकी उँगलियों को जकड़ लिया और अब दिमाग की भी उलझने बढ़ने लगीं।वो इस सोंच में पड़ गए कि अगर आनंदी को फोन किया तो बात क्या की जायेगी?फिर उन्होंने यही फैसला किया कि कल उस केस की पूरी रिपोर्ट मालूम करके ही आनंदी को फोन किया जाएगा और फिर सोने की तैयारी में लग गए।लेकिन आज भी पिछले पाँच-छह दिनों की तरह नींद उनसे रूठी हुई थी।शायद इसलिए क्योंकि उन्होंने अब आनंदी को अपनी जिंदगी में जगह दे दी थी।वो बिस्तर पर जाते ही सोचने लगे कि कल आनंदी से क्या-क्या बातें की जाएँगी और फिर आनंदी उसका क्या जवाब देगी ये भी वो खुद से ही सोच ले रहे थे।और कल होनेवाली वार्तालाप का खाका वो अपने दिमाग में खींचे जा रहे थे।एक ही चीज को बार-बार सोचे जा रहे थे कि तभी घड़ी पर नजर पड़ी एक बज गए थे।जब से वो आनंदी को देख के आये थे तबसे वो रोज रात में अनवरत चल रही घड़ी के साथ कम-से-कम दो बजे तक जरूर जागते थे।आज भी एक बजे अंतिम बार घड़ी देखने के काफी देर बाद पता नहीं वो कब सोये।लेकिन जब छह बजे का अलार्म बजा तो उन्हें ये जरूर लग रहा था कि अभी-अभी तो सोया था और अभी अलार्म बज गया।आज का दिन फिर बीत गया और रात आने पर फिर से आज वो आनंदी को फोन करने की हिम्मत नहीं जुटा पाये।ऐसे ही दस-पंद्रह दिन बीत गए और रोज रात की तरह वो उस दिन भी उन्होंने आनंदी का नंबर अपने मोबाइल में निकाल रखा था।तभी उनके मोबाइल पर आनंदी का फोन आ गया।वो एकदम से हड़बड़ा से गए ।पहले तो उन्हें लगा कि उनसे ही फोन लग गया है लेकिन फिर गौर से देखने पर उन्हें ज्ञात हुआ कि ये तो आनंदी ही फोन कर रही थी।जब वो आनंदी को फोन लगाना चाहते थे तब उनकी हृदयगति सामान्य से ज्यादा हो जाती थी,लेकिन अब जब आनंदी ने खुद से ही फोन किया था तब तो उनका ह्रदय मानो सीने से बाहर ही आ जाएगा ऐसी अनुभूति होने लगी।उनके हाथ कांपने लगे और जैसे पूरी देह में एक कम्पन सा हो रहा था।किसी तरह इन सारी परिस्थितियों से जूझते हुए उन्होंने फोन उठाया। "हेल्लो"आनंदी ने ही शुरुआत की क्योंकि विशाल बाबू तो कुछ बोल ही नहीं पाये थे।और आनंदी के हेल्लो बोलने क बाद भी वो कुछ देर तक कुछ नहीं बोल पाये। "हेल्लो विशाल सर...!" "ह ह हा अं हाँ... आनंदी बोलो" "सर मैंने ये पूछने के लिए फोन किया था कि उपेन्द्र शाव के मर्डर केस में कुछ पता चला कि नहीं?कोई अरेस्ट वगैरह हुआ कि नहीं.?" "हाँ इन्वेस्टीगेशन चल रही है और उसके भाई को ही गिरफ्तार किया गया है।" "ओके सर।और सर मेरी तरफ से कोई हेल्प नहीं चाहिए न,चाहिए होगी तो बता दीजियेगा।" "तुम्हारी ही मदद की तो अभी मुझे काफी ज्यादा जरुरत है।"विशाल बाबू ने मन-ही-मन कहा।और थोड़ी देर चुप रहे। "हेल्लो सर ....." "हाँ-हाँ आनंदी कुछ भी होगा तो मैं तुम्हे बता दूँगा।" "ठीक है सर और बताइये सब कुछ सही है न...?" उसके इतना पूछने पर फिर से विशाल बाबू अपनी यादों में खो गए ।और ये सोचने लगे कि कुछ भी तो ठीक नहीं है।और इस ठीक नहीं का कारण भी तुम ही हो ।लेकिन वो अभी भी आनंदी को ये सबकुछ बोल नहीं सकते थे। "सर आप कुछ बोल क्यों नहीं रहे ? लगता है आप कहीं बिजी हैं मैं आपको बाद में फोन करती हूँ|" इतना कहकर आनंदी ने फोन रख दिया।और आनंदी से बात कर रहे विशाल बाबू की हालात उस बगीचे की तरह थी जिसमें थोड़ी देर पहले तक वसंत लहरा रहा हो और अब एकाएक पतझड़ का आगमन.....। अगले दिन उस केस में पता चला कि दरभंगा का कोई आदमी भी संलिप्त है ।केस की प्रगति से ज्यादा विशाल बाबू इस बात से खुश थे कि इस केस की कड़ी दरभंगा से भी जुड़ गयी थी।आज उन्होंने बेधड़क आनंदी को फोन घुमाया और केस के सन्दर्भ में सारी जानकारी उसे दी।साथ-साथ आनंदी द्वारा पूछने पर कुछ व्यक्तिगत वार्तालाप भी हुई।अब तो जैसे ये केस बहाना बन गया था।दोनों अब काफी लंबे समय तक फोन पर बातें करने लगे थे।सभी को अब ये पता चलने लगा था कि मैडम और सर के बीच कुछ चल रहा है क्योंकि मैडम का समस्तीपुर दौरा और साहब का दरभंगा दौरा कुछ ज्यादा ही बढ़ गया था।दोनों में घनिष्ठता काफी बढ़ने लगी थी और अब दोनों एक-दूसरे से शादी करने के बारे में सोचने लगे थे।एक दिन विशाल ने आनंदी से कहा भी कि क्या अब हम एक-दूसरे से शादी कर लें....? "नहीं विशाल अभी थोड़ी जल्दी हो जायेगी।मुझे लगता है अभी हमे एक-दूसरे को थोड़ा और समझने की जरुरत है ।क्यों ना हम कुछ दिन लिव-इन रह लें और अगर उसके बाद सबकुछ सही लगा तो हम शादी कर लेंगे।" हाँ,आनंदी अब विशाल को विशाल सर नहीं केवल विशाल बुलाती थी।उसके इस प्रस्ताव को सुनकर तो विशाल की बांछें खिल गयीं।जिस चीज की चाहत लगभग हरेक मर्द को होती है उसका प्रस्ताव आनंदी ने खुद दिया, ऐसा विशाल सोच रहा था।उसने तुरंत हाँ कर दिया और चूँकि दरभंगा और समस्तीपुर के बीच की दूरी 45 किलोमीटर थी तो उन्होंने बीच की एक जगह में घर किराए पर ले लिया और साथ रहने लगे।विशाल की अपेक्षाएं अब आनंदी से थोड़ी बढ़ गयी थीं।दिनभर तो दोनों अपनी-अपनी ड्यूटी में व्यस्त रहते थे शाम को घर आने के बाद बगल के ही मैदान में थोड़ा साथ घूम-टहल लेते थे।रात में आनंदी ज्यादा-से ज्यादा बात करना चाहती थी लेकिन विशाल की कामेच्छा उसपर हावी होती जाती थी।चूँकि आनंदी का रुझान उस तरफ थोड़ा सा भी नहीं था इसलिए विशाल भी अपनी इस इच्छा को उजागर कर बुरा नहीं बनना चाहता था।लेकिन अब उसके व्यवहार में एक चिचिरापन आ गया था।और अब आनंदी के प्रति वो थोड़ा रूखा और उदासीन रहने लगा था। इधर किसी तरह आनंदी के मोहल्ले के लोगों को भी पता चल गया था कि आनंदी बिना शादी किये ही किसी लड़के के साथ एक घर में रह रही है।वहां तो जैसे कोई तूफ़ान आ गया।और कई दिनों से बेरोजगार पड़े लोगों विशेषकर महिलाओं को परनिंदा का बहुत बड़ा मौक़ा आनंदी ने दे दिया था। "अफसर होगी अपनी जगह लेकिन ये क्या बात हुई कि बिना ब्याहे ही किसी लड़के क साथ एक घर में रह रही है।बताइये चरित्र वगैरह कोई चीज होती है कि नहीं।अरे हम तो पहले से ही कहते थे कि वो लड़की ऐसी ही है।जब नयी-नयी जवानी में कदम रख रही थी तो दिन-रात उस बूढ़े मास्टर के पास पड़ी रहती थी और कलंक मेरे बेटे पर लगाती थी कि वो छेड़ता है उसको ।अरे तुम्हे कोई क्यों छेड़ेगा....?अब देखिये अब तो और छूट मिल गयी ना उसको अब तो बिन शादी के ही साथ रह रही है।सोचिये अगर शादी नहीं की तब तो सबकुछ गया ना इसका जी।और अगर शादी कर भी ली तो एक जात के हैं नहीं दोनों।अफसर होने से क्या हो जाएगा है तो चरित्रहीन ही ना....!" ये सारी बातें जानबूझकर सुनील की माँ आनंदी के घर के बाहर उसकी माँ को सुनाकर अपनी एक पड़ोसन से कर रही थी।आनंदी की माँ को ये सब सुनकर काफी ग्लानि हुई और उसने आनंदी को फोन लगाया। "बेटी तुम ये क्या कर रही हो शादी के पहले ही किसी और के साथ....?" "माँ हम बस साथ रह रहे हैं शादी के पहले एक दूसरे को समझना जरुरी है ना माँ ।पर तुम मुझपे भरोसा रखो माँ मैं ऐसा कुछ भी गलत नहीं करुँगी।" माँ ने आगे कुछ नहीं बोला और फोन रख दिया। उधर विशाल की कुंठा विशाल रूप लेती जा रही थी।ये बात आनंदी भी पूरी तरह समझ गयी थी और यह जान गयी थी कि विशाल बस उसे हासिल करने की चाह रखता है उसके और किसी बात से विशाल को कोई मतलब नहीं है।एकदिन किसी बात को लेकर विशाल ने आनंदी पर हाथ उठा दिया।उस दिन उसी समय आनंदी वो घर छोड़कर चली गयी और उसके बाद विशाल के फोन का भी कोई जवाब नहीं देती थी।विशाल ने एक-दो बार दरभंगा जाकर उससे माफ़ी मांगने की कोशिश भी की लेकिन आनंदी कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थी।आखिर उसने विशाल को यहां तक कह दिया कि अगर वो दरभंगा आना बंद नहीं करेगा तो वो उसके खिलाफ एप्लीकेशन डाल के दूसरी जगह पोस्टिंग करवा लेगी।उसकी इस धमकी के बाद विशाल फिर कभी भी आनंदी के पास नहीं गया। आनंदी का जीवन अस्थिर हो गया था।विशाल का आना शुरुआत में उसकी जिंदगी में समुद्र की हल्की लहरों की तरह था।जोकि अपने सौंदर्य से मोहित करने के साथ ही अपनी शीतलता से प्रफुल्लित भी करती हैं।लेकिन कब उन लहरों ने सुनामी का रूप ले लिया ये आनंदी को पता नहीं चला और सबकुछ बर्बाद कर चली गयीं।अब फिर से जिंदगी गुलज़ार हो पाना बहुत ही मुश्किल था।आनंदी काफी उदास रहने लगी थी। उसे पता चला कि दरभंगा के एस पी बदलने वाले हैं।नए एस पी के स्वागत के लिए आनंदी खुद उनके दफ्तर गयी थी।आनंदी को वहां जाकर बहुत बड़े आश्चर्य का सामना करना पड़ा लेकिन ये एक सुखद आश्चर्य था।उसका सहपाठी रह चुका प्रवीण आज दरभंगा का एस पी बनकर आया था।बारहवीं के बाद प्रवीण मोकामा छोड़कर चला गया था और उसके बाद आनंदी से उसका कोई संपर्क नहीं हुआ था।दोनों एक-दूसरे को देखकर चौंक गए उसके बाद उनके बीच बातें होने लगीं।वर्षो बाद हुई इस मुलाक़ात में दोनों लगभग ढाई घंटे तक बातें करते रहे।वर्षो तक संपर्कविहीन रहने के कारण एक दूसरे की जानकारी के अभाव में जो खाई बन गयी थी उसके ऊपर सेतु बनाने की यह पहली प्रक्रिया शुरू हो गयी थी।उन दोनों ने उस ढाई घंटे में एक-दूसरे के जीवन से अनुपस्थित रहे दिनों की चर्चा की और मोबाइल नंबर का आदान-प्रदान हुआ।प्रवीण से आनंदी की बातें अब काफी ज्यादा होने लगी थीं।वो किशोरावस्था से ही उसे जानती थी और अभी भी प्रवीण उसी तरह था ज्यादा बदला नहीं था,इसलिए वो उसे अपना शरीक-ए-हयात बनाना चाहती थी।यही हालत प्रवीण की भी थी।दसवीं में ही उसने उसको पसंद कर लिया था लेकिन कम उम्र,समाज का डर और आनंदी क्या सोचेगी ये सोचकर उसने उस समय मन की बात मन में ही रख ली थी।लेकिन अब जबकि फिर से दोनों एक-दूसरे के करीब थे तो उसने कई बार आनंदी के समक्ष शादी का प्रस्ताव रख दिया था।लेकिन आनंदी जिसने अभी तक उसे विशाल के बारे में कुछ नहीं बताया था बिना बताये उससे शादी नहीं करना चाहती थी और साथ-साथ डरती भी थी कि ये सब जानकर प्रवीण उससे दूर हो जायेगा इसलिए वो हर बार शादी के प्रस्ताव को टालती गयी.....। एक दिन दरभंगा के एक बड़े व्यवसायी के लड़के की शादी थी तो उसने प्रवीण और आनंदी दोनों को निमंत्रण भिजवाया था।दोनों उस शादी में एक साथ पहुंचे।प्रवीण कोट-पैंट में राजकुमार दिख रहा था तो आनंदी नीले सूट में खुद दुल्हन की तरह दिख रही थी।उनका स्वागत करने वो व्यवसायी खुद आया।और स्वागत करते समय हठात् उसके मुंह से निकल पड़ा। "आप दोनों की भी जोड़ी काफी अच्छी लगती है।" इतना कहते ही उसे ऐसा लगा जैसे उसने बहुत बड़ी गलती कर दी हो।उसने दांतो तले अपनी जीभ दबा ली मानो जीभ ने ही गलती की और वो दांतो तले दबाकर उसे सजा दे रहा हो।अपनी गलती सुधारते हुए उसने कहा,"मेरे कहने का मतलब है आप दोनों की जोड़ी ने दरभंगा जिले में बहुत अच्छा काम किया है।आइये-आइये अंदर आइये ....।"और वो हाथ से दरवाजे की ओर इशारा करता हुआ उन्हें अंदर ले गया।और फिर कुर्सी पर बिठा कर अन्य काम में व्यस्त हो गया।शादी में उस जगह काफी अच्छी सजावट हो रखी थी।पहले ही वो व्यवसायी प्रवीण और आनंदी की जोड़ी की तारीफ कर चुका था।इस बार प्रवीण बोल पड़ा,"आनंदी हम अपनी शादी में इससे भी अच्छा मंडप बनवायेंगे।" "प्रवीण तुम्हे मैंने अपने बारे में सबकुछ नहीं बताया है ।हो सकता है वो सब जानकार तुम मुझसे शादी भी ना करो।" प्रवीण समझ गया कि इसका कोई बॉयफ्रेंड रहा होगा और इसी बात को लेकर वो ये बोल रही है।अपने पूर्वानुनमान को प्रश्न में बदलते हुए प्रवीण ने पूछा,"तुम यही कहना चाहती हो ना कि तुम्हारा कोई बॉयफ्रेंड भी रह चुका है।तो सुनो,मुझे इससे कोई आपत्ति नहीं है।" "नहीं प्रवीण सिर्फ इतना ही नहीं है।मैं उसके साथ तीन महीने लिव-इन रिलेशनशिप में रह चुकी हूँ।लेकिन हमारे बीच कोई भी फिजिकल रिलेशन नहीं रहा है।" "अगर फिज़िकल रिलेशन होता भी तब भी मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता।बोलो अब तो तुम मुझसे शादी करोगी ना....?" आनंदी को यकीन नहीं हो रहा था कि सबकुछ जानने के बाद भी प्रवीण उससे शादी के लिए हाँ कर देगा।दोनों भिन्न जाति के थे फिर भी दोनों के घरवालों को कोई आपत्ति नहीं थी।शादी की तारीख पक्की की गयी और शादी का भव्य आयोजन किया गया। शादी में सभी दूर-पास के मेहमान आये हुये थे।आज लगभग सारे लोग यही कह रहे थे।आज के युग में जाति-पाति कोई चीज थोड़े ही ना है।अब बताइये लड़का-लड़की जब एक-दूसरे के साथ खुश हैं तो फिर जाति वगैरह के बारे में सोचना ही क्या है।सुनिल की माँ भी खाने का प्लेट हाथ में लिए बाकी मेहमानों से यही चर्चा कर रही थी कि भगवान् आनंदी जैसी बेटी हर किसी को दे।शादी ख़त्म होने के बाद अगले दिन विदाई से पहले सुनील की माँ आनंदी से मिलने गयी खूब आशीर्वाद दिया और एक कोने में बुलाकर कहा कि मुझे तुमसे कुछ बात करनी है बेटा....। "हाँ आंटी बोलिये क्या बात है..?" "दरअसल सुनील भी तुम्हारे एरिया में ही बिज़नस करने गया था ।लेकिन उसको कुछ लोगों ने फंसा दिया है और गाँजा की तस्करी के जुल्म में वो जेल में है बेटा।अब तो तुम्हारे पति भी एस पी हैं कुछ करना बेटा कि वो छूट जाए....।मैं तुम्हारे पाँव पड़ती हूँ बेटा...!" "अरे नहीं नहीं आंटी ऐसा मत कीजिये मैं अपनी तरफ से पूरी कोशिश करुँगी की अगर उसने जुल्म ना किया हो तो वो छूट जाए...।" इतना कह कर आनंदी ये सोचने लगी कि आज ये आंटी किसके पैर पड़ रही हैं।बेशक आज मैं एक अफसर हूँ पर "मैं चरित्रहीन थी न....................!"

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