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एक अधूरा प्रेम पत्र

प्रिय जान,
           वो रातें याद हैं क्या तुम्हें? जिन रातों में हम अक्सर पीठ के बल घास पर लेटे रहते और आसमान के तारे गिना करते थे। इस उम्मीद में कि ना जाने कब आसमान से कोई तारा टूट कर गिरे और हम उस टूटे हुए तारे से एक दूसरे को माँग लें।
          अक्सर तुम चाँद को देखकर मुझसे कहा करती थी कि जब हम एक दूसरे से दूर होंगे और हमारे बीच बात-चीत का कोई ज़रिया नहीं होगा तो हम चाँद को एक दूसरे का पैग़म्बर बना कर उससे अपनी अपनी विरह-व्यथा कहा करेंगे। और वो हम दोनों के आँसुओं से भीगे हुए ख़तों को बारिशों के ज़रिये हम तक पहुँचा दिया करेगा।
          पर जान, मैं भी तो कितना ज़िद्दी हूँ ना। मैं चाँद को कभी अपना नहीं सका। भला कैसे अपना लेता किसी ऐसे को जिससे मुझे तुम्हारी प्यार साझा करना पड़ता था। क्योंकि जब तुम मुझको नहीं देख रही होती थी तब तुम चाँद को देखा करती थी और मैं तुम्हारी नज़र-ए-करम के इंतज़ार में चाँद को ही अपना प्रतिद्वंदी समझ कर चाँद से ही जला-कुढ़ा करता था। मन करता था आग लगा दूँ मुए चाँद को।
          मगर आज चाँद घट के आधे से भी कम हो गया है तो समझ में आता है कि चाँद तो कभी मेरा दुश्मन था ही नहीं। चाँद से तो मुझे कभी दर्द मिला ही नहीं। दर्द तो मुझे सिर्फ मेरी किस्मत और तुम्हारे हालातों ने दिया है। दर्द तो मुझे सिर्फ इन ख़ामोशियों ने दिया है जो हमारे दरम्यां घर बना कर बैठ गयी हैं।
          दो रातों में अमावस है। चाँद आसमान में कहीं नज़र नहीं आएगा। दो रातों में तुम्हारी शादी भी है। तुम हमेशा-हमेशा के लिए किसी और के हो जाओगी। चाँद शायद तुम्हारी बेवफ़ाई से बचने की ख़ातिर ही उस दिन छुट्टी पर होगा। काश! मैं भी चाँद की तरह तुमसे और तुम्हारी यादों से दूर भाग सकता। मगर मैं चाँद नहीं हूँ। मैं तो बस एक टूटा हुआ तारा हूँ जो अपने आसमान से छिटक कर कहीं दूर जा गिरा है।
और आख़िरी बार जब तुम्हारा पैग़ाम आया था तो तुमने लिखी थी कि तुम मजबूर हो। तुमने लिख भेजी थी कि कैसे तुम मुझसे आज भी उतनी ही मोहब्बत करते हो। और तुमने ये भी लिख भेजी थी कि कैसे अब इन ख़तों का सिलसिला थम जाने को है। और हाँ, शायद बातों-बातों में तुमने इस बात का भी ज़िक्र कियी थी कि कैसे तुम अब भी टूटे हुए तारों से मुझे माँगा करती हो!
          पर जान, हम प्यार करने वाले भी कितने बेवकूफ़ होते हैं ना! इतने अंधे होते हैं हम प्यार में कि ये भी नहीं देख पाते कि जो ख़ुद टूटा हुआ होता है, वो भला कैसे किसी और की इच्छाओं का बोझा उठा सकता है? हम भूल जाते हैं कि टूटी हुई चीज़ें, टूटे हुए लोग, टूटे हुए तारे, ये सब तो खुद हालात के मारे हुए होते हैं, इनका किसी और की ज़िंदगी पर ज़ोर नहीं चल सकता।
          और इसीलिए, बस इसीलिए, अब मैं तुम्हें जाने दूँगा। क्योंकि तुम को चाहते-चाहते टूट चुका हूँ मैं। मेरा अब मेरे हालातों पर या तुम्हारी ज़िन्दगी पर कोई ज़ोर नहीं है। तुम भी मुझे जाने देना, जान।
चलो, मैं चलता हूँ। अब चलने का वक़्त हो गया है। मैं तुमसे प्यार करता हूँ, ये नहीं लिखूँगा इस ख़त में। इस ख़त को शायद आगे लिख भी नहीं पाऊँगा, जान। ना जाने कितना कुछ है कहने को, कितनी शिकायतें हैं करने को, पर मैं कुछ नहीं लिखूँगा। अधूरा ही छोड़ दूँगा इस ख़त को। क्योंकि शायद मेरा ख़त पढ़ते-पढ़ते चाँद की आँखें भर आई हैं। मेरी तरफ़ बरसात होने को है। हाँ, शायद हमेशा की तरह ही अपने इस अधूरे से ख़त की नाव बना कर छोड़ दूँगा बरसात के पानी में।
          शायद, चाँद मेरा पैग़ाम तुम तक पहुँचा देगा। शायद, हम दोनों एक दूसरे को भुला देंगे।
                                                            चन्दा की दोस्त,
                                                             शैलेन्द्र भारती


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1 Comments
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  1. वाह क्या बात sir,
    इतना दर्द ,इतनी मोहब्त, कैसे झेलते हैं आप लेखक महोदय

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