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जो मृत्यु के पहले मर जाता है

किसका ज़ोर चलता है हम पर, किसके सामने हमारा ज़ोर कम पड़ता है ? ज़िन्दगी और है ही क्या उस ज़ोर की चोट खा लेने के एक मौक़े के इलावा ? लेकिन हम हैं कि नकली ज़ोरबाज़ी के चक्कर में वो मौक़ा गँवा बैठते हैं. हम, जो अपनी सालगिरह के दिन ज़िन्दगी में दाख़िल होते हैं और कसरतें करते-करते किसी रोज़ बीत जाते हैं. इतने मज़बूत थे तो मर नहीं जाना था. ये दिमाग़ी कसरतें, मजहबी इबादतें, पंडित-मौलवी, नज़ूमी-बैद किस काम के निकले जो ये मौत के चंगुल से छुड़ा भी न सके ? फिर यहाँ अब्दुल शाह लतीफ़ याद आ जाते हैं. वो कहते हैं कि,

"जो मृत्यु के पहले मर जाता है
मृत्यु उसे कभी नष्ट नहीं कर सकती."

इन्हें क्या इल्हाम हुआ ? मौत के पहले कैसे मरना है ? मौत के बाद कहाँ जाना है ? दोबारा आना है ? सब कुछ आख़िरी है ? कि सब कुछ पहला है ? कि न पहला न आख़िरी है ? बस ! यह है. लेकिन यह क्या है ? क्या यह फ़ाया-कुन हो जाने का सफ़र है ? लेकिन नहीं. फ़ाया-कुन भी हो, तो सुना-सुनाया नहीं. उधारी का ऐलान-ए-अनलहक नहीं. अपने ज़ख़्म, अपने मरहम, अपनी राह, अपनी निगाह, अपने नज़ारे, अपनी हक़ीक़त, अपनी मुहब्बत, अपनी सोहबत.

किसी मदरसे, किसी किताब, किसी मुर्शिद के पास नहीं खुलने वाले ये राज़ कि,
"सब्ज़ा-ओ-गुल कहाँ से आए हैं
अब्र क्या चीज़ है, हवा क्या है ?"

बिरला सीमेंट हो क्या, जो मज़बूत होना है ? पीपल का पात रहो, डोलो मंद-मंद हवा के संग. टूटो, गिरो, मिट्टी में मिलो, फिर उगो. शायद कुछ बात बने.

यूँ कि हवा के ज़ोर से काँपे बिना हवा को जान पाने की बात भी हवा ही है.

©बाबुषा

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