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स्वार्थ Svarth

अड्डे पर आकर रुकी, अन्य दो सवारियों के साथ वह भी बस पर चढ़ गया। एक अच्छे से पद पर नई-नई नौकरी लगी थी उसकी। घर से दफ्तर तकरीबन दस किलोमीटर की दूरी पर था।

बस में उसे सीट एक फटे-पुराने गंदे से कपड़े पहने व्यक्ति के बगल में मिली। शायद वह कोई दिहाड़ीदार मजदूर था जो बस में खिड़की की ओर बैठा ऊंघ रहा था।

नाक-भौं सिकोड़ते हुए उसके बगल में बैठ वह उससे दूरी बनाए रखने की कोशिश करने लगा ताकि उसका साफ-सुथरा कपड़ा उस मजदूर से लगकर कहीं मैला न हो जाय।

बस अपनी रफ्तार से भागी जा रही थी। उसने देखा कि नींद में उस मजदूर की बांह खिड़की से बाहर निकल गई है। दूसरी ओर से कोई वाहन आता तो ऐसे लगता कि वह उसकी बांह तोड़कर गुजर जाएगा।

वह देखता रहा और कुछ देर बाद अपनी निगाहें दूसरी ओर मोड़ लीं, यह सोचकर---

‘‘बांह टूटती है तो टूटे.... मुझे क्या? इन गंदे घटिया लोगों के पास अक्ल नाम की कोई चीज नहीं होती।’’

दुर्घटना की आशंका में वह चुपचाप बैठा रहा। फिर अचानक शीघ्रता में उसने मजदूर को जगाते हुए कहा, ‘‘भइया, अपनी बांह अंदर कर लो। कहीं चोट न लग जाय।’’

मजदूर ने अपनी बांह अंदर कर ली। उसने राहत की सांस ली --

‘‘कहीं दुर्घटना हो जाती तो खामख्वाह बस बीच राह में रोकनी पड़ जाती और उसे दफ्तर पहुंचने में देर हो जाती। उसकी अभी नई-नई नौकरी लगी है।’’

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