
नोएडा के एक मकान में किराए का एक कमरा लेकर मैं रहने लगी। मैं एम•बी•ए• करने लगी। बगल के कमरे में रांची का रहने वाला एक आदिवासी युवक हैम्ब्रम रहता था। वह एक सरकारी कार्यालय में लिपिक था। उसका कार्यालय मेरे कॉलेज के समीप था। परिचय बढ़ने पर वह कार्यालय जाते समय मुझे भी अपने साथ स्कूटी से ले जाने लगा। लौटते समय मैं ऑटो से लौट जाती थी।
एक दिन मैं कॉलेज से लौटी तो मेरे आवास के गेट के समीप मेरे सामने ही एक युवक ने अपनी मोटरसाइकिल रोक दी। उसके पीछे पांच-छः वर्ष का एक बच्चा बैठा था। मैं रुक गई। युवक मुझे गौर से देख रहा था। वह मोटर साइकिल से उतर गया। थोड़ा भ्रमित होने के बाद मैंने उसे पहचान लिया वह आनन्द था। उसने मुझसे पूछा-"तुम?"
मेरे भीतर की प्रतिहिंसा धधक उठी। बिना कोई उत्तर दिए मैं अपने अहाते में प्रवेश कर गई। मैंने पलटकर देखा आनन्द मेरे सामने के आवास में जा रहा है। दोनों आवासों के बिच एक काली चौड़ी सड़क थी।
अपने कमरे में आकर मैं कपड़े बदले बिस्तर पर लेट गई। अतीत का बोझ अचानक मुझे दबाने लगा। सुखा घाव हरा हो गया।
थोड़ा सहज होने के बाद मैंने पाया की आनन्द के प्रति मेरे मन की जीज्ञाशा कौतुहल में परिणय होने लगी है। आनन्द की पत्नी कैसी है। मोटरसाइकिल के पीछे बैठा बच्चा क्या आनन्द का ही था? कैसा है आनन्द का दाम्पत्य जीवन।
दुसरे दिन सुबह चार बजे प्रतिदिन की भांति मकान मालिक गेट खोलकर टहलने निकल गया।मेरी नींद टूट गई। मेरी खिड़की के सामने हरसिंगार का एक पेड़ फूलों से लदा था। पूरबईया का एक झोंका फूलों की सुगंध लिए मेरे पुरे शारीर पर लोट गया। मैं उस धुंधलके में बाहर देखने लगी। तभी मेरी खिड़की पर कोई आकर खड़ा हो गया। मैं चौंकी।
“रूचि! मैं आनन्द हूँ।“
“तुम? यहाँ क्यों आए?”
“पूजा के लिए फुल लाने आया था। कल मुझे जानकारी मिली की तुम इसी कमरे में रहती हो। अभी लगा की तुम जाग रही हो।“
“तो?”
“मैं तुमसे कुछ कहना चाहता हूँ।“
“कहने का यही समय मिला है तुम्हें?”
“रूचि, मैं रात-भर सो नहीं पाया। मेरे भीतर एक बेचैनी छाई रही। अभी तुम्हें देखा तो अपने को रोक नहीं पाया।
“मुझ्रे कोई बात नहीं करनी है तुमसे। भाग जाओ यहाँ से।“
आनन्द फुल लेकर लौट गया। दूसरे दिन फिर उसी निवेदन के साथ वह सड़क पर मिला। मैंने फिर नकार दिया। किन्तु मेरे भीतर एक प्रश्न उठने लगा कि आख़िर वह मुझे क्या कहना चाहता है। मेरे आखों के सामने उसके माता-पिता व्दारा दिया गया तिरस्कार आकार लेने लगा था। उसके पिता का एक-एक शब्द मेरी कानों में आज भी बम पटक रहा है। ऐसा तिरस्कार? ऐसा उपेक्षा? किसकी उपेक्षा? मेरी या मेरे रंग-रूप की? रूप विहिन औरत क्या औरत नहीं होती? क्यों आवश्यक है उसके लिए रूप? पुरुष के भोग के लिए? क्या रूप विहिन औरत जननी नहीं हो सकती? क्या औरत के जन्म का एक मात्र उद्देश्य पुरुष-भोग की वस्तु बनना है। नहीं, रूचि इसे नहीं मानती।
नौ बज गए। मैं कॉलेज जाने के लिए तैयार थी। हैम्ब्रम अभी तक क्यों नहीं निकला। मैं उसके कमरे में गई। वह विस्तर पर लेटा था।
“क्या हुआ, हैम्ब्रम?”
“बुखार हैं?”
“कोई दवा ली?”
“कौन दवा ला देगा? मैं डाक्टर के पास जाना चाहता हूँ। पर अकेले कैसे जाऊं?”
"मैं चलती हूँ। तुम कपड़े बदलो, मैं टैक्सी लेकर आती हूँ।"
मैं टैक्सी में हैम्ब्रम को लेकर डॉक्टर के पास चली।
"हैम्ब्रम! तुम पत्नी को साथ क्यों नहीं रखते?"
"शादी अभी नहीं हुई हैं।"
"क्यों?"
"कोई पढ़ी-लिखी लड़की मिलती तो शादी कर लेता हम लोगों की जाती में लड़कियों में शिक्षा का प्रसार अभी बहुत धीमा है।"
"आदिवासियों पर तो सरकार का विशेष ध्यान है।"
"सो तो है।"
"पिता जी क्या करते हैं?"
"खेतिहर मजदूर हैं।"
"गांव में घर-द्वार?" "बांस-टाट का घर है।"
"लड़की सिर्फ पढ़ी लिखी चाहिए या की गोरी,लंबी,सुंदर लड़की चाहिए?"
"क्यों मजाक करती हो? हमलोगों में ऐसी लड़की कहाँ मिलेगी? मुझे रूपवती नहीं गुणवती चाहिए। मैं स्वंम जैसा हूँ वैसी लड़की चाहिए।"
डॉक्टर से दिखाकर मैं हैम्ब्रम को आवास पर ले आई। उसे दवा खिलाई। पथ्य का खाना दिया। उसके खाने के बाद जब मैं जूठी थाली लेकर धोने चली तो अचंभित होते हुए उसने मुझे रोक। मैं रुकी नहीं। बर्तन धोकर जब कमरे में आई तो हैम्ब्रम हिचक-हिचक कर रो रहा था।
अगले दिन रविवार की छूटी थी। करीब नौ बजे मैं दूध लेकर आ रही थी तो फिर आनन्द सड़क पर खड़ा था। वही मुझे अपलक देखे जा रहा था। आख़िर क्या कहना है आनन्द को? क्यों वही पीछे पड़ा है। आनन्द के साथ उसकी अंगुली पकड़े वही बच्चा खड़ा था। मुझे बच्चे पर प्यार आया।
"रूचि?" उसने टोका। मैं रुक गई।
"क्यों मेरे पीछे पड़े हो?"
"सड़क पर क्या बात करूं? अपने आवास पर सिर्फ दस मिनट का समय दो।"
"आओ।"
आनन्द बच्चे की अंगुली पकड़े मेरे पीछे-पीछे मेरे कमरे में आ गया। उसने चलते-चलते बताया कि वही एक मल्टीनेशनल कंपनी में सेल्स मैनेजर हो गया है।
आनन्द कुर्सी पर बैठ गया। मैंने बिस्कुट निकालकर बच्चे को दिया। बच्चा मुस्कुरा उठा। फिर मेरे भीतर उस नन्हे के प्रति प्यार उमड़ा। जी चाह रहा था की उसे गोद में उठाकर घुमाऊं। पर नहीं आनन्द इसका दूसरा अर्थ लेगा।
"हाँ बोलो, तुम्हें क्या कहना हैं?"
"रूचि! तुम्हारी दृष्टी में मैं एक अपराधी हूँ। इसलिए पहले मैं तुमसे माफी मांगता हूँ।"
"ड्रामेबाजी छोड़ो। बात कहो।"
"तुम्हारी शादी अभी तक नहीं हुई, रूचि?"
"नहीं, मैं अपने अपराध की सजा भोग रही हूँ।"
"अपराध?"
"हाँ, इस उपयोगितावादी युग में किसी काली-नाटी लड़की का अपने किसी समकक्ष युवक की पत्नी बनने का सपना देखना एक अपराध ही तो है। तिम्हारे बाध बीसों युवकों ने मुझे देखा। किसी ने मुझे अपने उपयोग की वस्तु नहीं समझा। पत्नी बनाने की बात तो हजारो मील दूर की बात रही।"
"....."
"तुम खुश हो न? कैसी है तुम्हारी पत्नी? इंद्रलोक की पृ जैसी या की बॉलीवुड की नायिका जैसी।"
"...."
कुछ नहीं बोला आनन्द। पर मैंने देखा की उसकी आँखें डबडबा गई। उसने बच्चे को उठाकर गोद में रख लिया। पलकें झुका ली। मैंने देखा की उसकी पलकों के नीचे से आंसू टपक रहे हैं।
"क्या हुआ?"
"..."
"आनन्द, हमदोनों बहुत देर इस कमरे में नहीं रह सकते। तुम्हें अपनी पत्नी के साथ आना चाहिए था।"
"रूचि, मेरी पत्नी का देहांत पिछले वर्ष डेंगू से हो गया। मेरा यह इकलौता बीटा बिन माँ का हो चूका है।"
"क्या?"
"हाँ नगमा। मैं तुमसे निवेदन करने आया हूँ की तुम इस बच्चे की माँ बन जाओ। मैं तुमसे शादी करना चाहता हूँ।"
"क्या??????"
"हाँ रूचि, मेरी प्राथना सुनो। मेरे प्रस्ताव को मत ठुकराओ। मुझे माफ करो। औरत देवी होती है। मैं अपने माता-पिता की सहमति से निवेदन लेकर आया हूँ। मुझ पर और मेरे बच्चे पर कृपा करो, देवी।"
मैं अचंभित थी। आनन्द की दुर्दशा और उस बच्चे के प्रति मेरे मन उमड़ते प्यार से मैं पिघलने लगी थी। किन्तु ज्योंति उसने अपने माता-पिता का नाम लिया त्यों ही मेरा आक्रोश भड़क उठा। हुंह! खानदान बिगड़ जाएगा। भावी पीढ़ी प्रभावित हो जाएगी। तो उस काइयां पुरुष ने दांव खेला है। अब उसके पास सुंदर पोत है। खानदान बिगड़ने का भय नहीं रहा। भावी पीढ़ी प्रभावित नहीं होगी। थोड़ी देर खामोश रहकर मैंने कहा-"आनन्द! आज न तो मेरे रंग बदल गया है और न ही कद बड़ा हो गया है। हाँ, तुम्हारी आवश्यकता अवश्य बदल गई है। अब तुम्हें भोगने के लिए एक नारी देह चाहिए, तुम्हारे माता-पिता को एक सेविका चाहिए और बच्चे को एक नर्स चाहिए। तुम और तुम्हारे परिवार के जिन लोगों ने कल मुझे तिरस्कृत किया था वे लोग ही आज मुझे आमंत्रित कर रहे हैं। सच यह है आनन्द की कल यह काली-नाटी लड़की तुम्हारें लिए उपयोग की वस्तु नहीं थी और परिस्थितिवश वही लड़की आज तुम्हारे परिवार के प्रत्येक सदस्य के लिए अत्यंत उपयोगी वस्तु बन गई है। यही कारण है कि तुम आज मुझे देवी कहकर एक दांव खेल रहे हो। पासा फेंक रहे हो।"
"रूचि..."
"आनन्द! आज भी तुम एक संवेदनशील जीवन संगिनी बनने का प्रस्ताव लेकर किसी लड़की के पास नहीं आए हो। 'देवी' संबोधन का मूल्य देकर तुम एक उपयोगी वस्तु खरीदने आए हो।"
"उफ्! रूचि, तुम मेरे प्रति घृणा और आक्रोश से भर चुकी हो। मैं माफी मांग चूका हूँ।"
"आनन्द! क्या यही प्रस्ताव लेकर तुम किसी गोरी, लंबी, शिक्षित, सुंदर और कुंवारी लड़की के पास जा सकते हो?"
"..." आनन्द मेरा मुंह ताकने लगा।
"तुम मेरे पास यह सोचकर आए हो की मैं काली हूँ, नाटी हूँ, उपेक्षित हूँ, तिरस्कृत हूँ और एक जीवन-संगी पाने के लिए तुम्हारी दृष्टि में बेचैन हूँ। तुम्हें ऐसी ही एक वस्तु की आवश्यकता है, जीवन-संगिनी की नहीं।"
"रूचि, अभी तो तुम बहुत आक्रोशित हो। मैं जाता हूँ। फिर आऊंगा। इस बिच रम सोच लेना की तुम ही मेरी जरूरत हो या की तुम्हें भी एक पुरुष की जरूरत है?" आनन्द चला गया। किन्तु जाते-जाते वही एक तीखा सन्देश भी छोड़ गया। इस सन्देश ने मेरे अंतर्मन के कोने में सुबकती आवश्यकता को जागृत कर दिया।
क्या आनन्द के प्रस्ताव को ठुकराकर मैंने गलती की? आनन्द स्वजातीय हमउम्र है, संपन्न है। पटना में उसका फ्लैट है। गाड़ी है। प्रस्ताव लेकर वही आया है। क्या यह नहीं की आज भी मैं किसी ऐसे ही पुरुष की जीवन-संगनी बनने की लालसा से बेचैन हो उठती हूँ? पिछली सात वर्षों में किसने पूछा मुझे? और मेरे लिए किस-किस की तलाश नहीं की गई।
(बाकि अगले भाग में)