गुडीया कॉलिंग.......
मेरे मैक्रोमौक्स के फोन पर यह लिखा हुआ पूरे एक हफ्ते बाद आ रहा था। ये शब्द जब भी मेरे फोन पर फ़्लैश होते थे मेरी ख़ुशी का कोई पार नहीं रहता था। किसी अनावृष्टि से पीड़ित किसान को अपने खेत में मूसलाधार बारिश हो जाने से शायद जितनी ख़ुशी मिलती होगी ठीक उसी तरह की ख़ुशी मुझे भी मिल रही थी। मेरे होठ किनारे कानो को छूने की चेष्टा में लग गए थे। मेरी छोटी आँखें इस बड़ी मुस्कान में मानो अपना अस्तित्व खोती नजर आ रही थीं। मैंने अविलम्ब हरे रंग से बने फोन की आकृति को स्लाइड किया।
"हेल्लो.."
"हाय कुन्दन ,कैसे हो..?"
"मैं भी बिलकुल ठीक हूँ।"
"यार सॉरी मैं आजकल रोजाना तुम्हें कॉल नहीं कर पाता।"
"अरे..! कोई बात नहीं यार ,चलता है..."
गुडीया को मैंने पहली बार ग्यारहवीं कक्षा में देखा था। देखने में तो किसी फ़िल्मी अभिनेत्री से कम नहीं थी। भगवान् ने उसके नाक-नक्श मानो किसी दक्ष और अनुभवी कारीगर से गढ़वाये थे। चेहरे की आभा भी आफताब से उधार मांग कर उसे दी गयी थी, ऐसा प्रतीत होता था। मैंने उसे स्कूल के बरामदे में देखा था और बस देखते ही रह गया.....। मेरी नजरें किसी कुशल चित्रकार की भाँति उस पर टिक गयीं। जिस तरह चित्रकार किसी भी मनोरम दृश्य को देखकर उसकी सुंदरता की हरेक सूक्ष्म बारीकी को अपने चित्रपटल पर उलीच देता है, ठीक उसी तरह उसकी खूबसूरती का कण-कण मेरे मानसपटल को आच्छादित कर रहा था।मैं पहली ही दफा उसे देखने के बाद उसका आसक्त हो गया था। अब मेरे दिमाग में उसके अलावा कुछ और नहीं था। मैं बस इसी उधेड़बुन में लग गया कि किस तरह इस लड़की से मित्रता की जाए किस तरह इस वसुंधरा की बेमेल सुंदरता से कुछ बातें की जाए।
स्कूल ख़त्म होने के बाद मैं उस दिन घर गया। मेरे दिमाग में अब बॉलीवुड के गाने बजने लगे थे। मुझे अब घर में कोई कुछ कह रहा था तो ना तो वो सुनाई दे रहा था ना ही अब कुछ समझ में आ रहा था। अभी तक मैंने गुडीया से बात तक भी नहीं की थी और मेरा ये हाल था। मैं अभी केवल 16 साल का था और इस उम्र में ऐसा बहुतों के साथ होता है लेकिन उस समय मैं अपने आप को सबसे अलग मान रहा था। फिल्मों में देखा गया दृश्य मुझे लगा आज मुझपे फिल्माया जा रहा है। वो किसी फ़िल्म की अभिनेत्री और मैं अपने आप को हीरो समझने लग गया था। थोड़ी देर तक तो मेरे दिमाग ने ये फ़िल्मी ड्रामा किया और अपने आप को किसी भी हीरो से कम समझना कतई उचित नहीं समझा, लेकिन तभी दिमाग में एक और ख्याल अंकुरित हुआ। अंकुरित क्या हुआ मानो दूसरा ख्याल पूरी तरह से समृद्ध होकर पहले ख्याल पर हावी हो गया और मैं स्वप्नभंग का शिकार हो गया। हाँ...जागते हुए देखा तो क्या हुआ? था तो वो सपना ही ना.....। मेरी तंद्रा टूटी और मेरे मन ने मुझसे सवाल किया"अरे अपने आप को कभी आईने में देखा है कि नहीं..... ! क्या तुम उस हेरोइन के हीरो बनने के लायक हो....?"
खैर किसी तरह रात बीती और भोर का आगमन हुआ। मैं आज कुछ विशेष तरीके से स्कूल जाने के लिए तैयार हो रहा था। मेरा मन गुडीया के ख्यालों में उत्फुल्ल था। और आज का दिन मेरे लिए सच में ख़ास है ये बात मेरे चेहरे को देखकर कोई भी बता सकता था। किसी भी काम को मैं अनायास ही जल्दीबाजी में कर रहा था। मेरी देह आज एक अलग ही परिभाषा कह रही थी........। जल्दी-जल्दी तैयार होकर उस दिन मैं एक घंटे पहले स्कूल पहुँच गया। मेरी पलकें स्कूल के गेट की ओर टकटकी लगाए हुई थी। काफी समय बीत गया लेकिन गुडीया नहीं आई थी। मुझे लगने लगा था कि अब वो नहीं आएगी और मैं ये भूल गया कि क्लास शुरू होने में अभी काफी समय शेष है और इतना पहले शायद ही कोई बेवकूफ होगा जो आएगा। खैर हरेक मिनट एक पहाड़ की तरह मैं बिताता रहा और अंततः गेट से गुडीया का पदार्पण हुआ। लाल रंग के सूट में वो आज भी उतनी ही सुन्दर लग रही थी जितनी कि कल दिखी थी। ना तो गुडीया मुझे मारती ,ना गाली देती यहाँ तक कि वो तो मुझे जानती तक भी नहीं थी फिर भी ना जाने क्यों उसे देखते ही मेरी धड़कनें अपने चरम रफ़्तार से धड़कने लगीं।ह्रदय मानो सीने से बाहर आने को आतुर हो उठा था। मेरे हाथ-पैर तक कांपने लगे। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था उसे देखते ही ऐसा क्यों होने लगा था। अभी तो उससे बात करना बाकी है अगर बात करने गया तब क्या होगा...! मैं उस दिन दिन भर सोचता रहा कि अब गुडीया को रोककर उससे बात करूँ। पर पूरा दिन निकल गया और मैं उसे टोकने का साहस नहीं बटोर पाया। अभी तक मैंने अपने किसी मित्र से भी यह बात साझा नहीं की थी कि मुझे गुडीया पसंद है और मैं उससे दोस्ती करना चाहता हूँ। हालाँकि मैं क्लास में बार-बार गुडीया को देख रहा था और शायद उसने यह बात भाँप ली थी।फिर भी कुछ और दिन बीत गए। ना मैंने कुछ कहा और ना उधर से कोई प्रतिक्रया आई। कुछ दिनों के बाद क्लास में नोट्स जमा करना था।गुडीया को शायद मेरे बारे में पता चल चुका था कि मेरा नोट्स क्लास में सबसे अच्छा रहता है। एक दिन जब क्लास ख़त्म हुई और मैं अकेले क्लास के बाहर बरामदे में टहल रहा था तो गुडीया मेरे सामने आकर खड़ी हो गयी और मुस्काते हुए कहा,
गुडीया मुझसे बात करने आई थी ये सोचकर मुझे जहां काफी खुश होना चाहिए था वहीं मैं नर्वस हो गया एक बार फिर से मेरी धड़कने राजधानी एक्सप्रेस की गति से दौड़ने लग गयी थीं। और मैं बस गुडीया को देखे जा रहा था कि तभी गुडीया ने फिर से कहा," हेल्लो...,"
फिर उसने सीधा प्रश्न किय,"जो नोट्स जमा करने हैं तुमने बना लिया है क्या?"
"मुझे चाहिए यार ,दोगे क्या..?"
मैंने क्लास से नोट्स लाकर उसे दे दिया।उस समय मेरे दिमाग ने काम करना बिलकुल ही बंद कर दिया था। नोट्स लेकर वो चली गयी और मैं क्लास में आकर अपनी जगह पर बैठकर गुडीया के बारे में सोचने लगा। अब मैं ये सोच रहा था कि मुझे नोट्स इतनी आसानी से नहीं देना चाहिए था उससे थोड़ी और बात करनी चाहिए थी फिर मैंने अपने आप से कहा हाय तो ठीक से बोल नहीं पा रहा था और बात क्या करता। अपने आप से मेरा वार्तालाप चल ही रहा था कि अचानक मुझे याद आया कि अभिषेक ने मुझसे नोट्स मांगे थे।लेकिन तुरंत ही अभिषेक मेरे विचारों से अनुपस्थित हो गया और गुडीया से की गयी बातों में डूबकर मैं उस वार्तालाप का पर्यवेक्षण करने लगा। गुडीया ने जो एक- दो पंक्तियाँ मुझसे कहीं थीं वो मेरे दिमाग में किसी सुरीले ग़ज़ल की तरह प्ले हो रही थीं। उन पंक्तियों ने मानो मेरे दिमाग के हार्डडिस्क को पूरी तरह फुल कर दिया था।
गुडीया की सोच में डूबे हुए ही कब दिन ढल गया और शाम अपनी बाहें फैलाये आ गयी पता नहीं चला। शाम को अभिषेक मुझसे मिला और उसने कहा,"आज नोट्स दे देना।"
"सॉरी यार! नोट्स तो आज गुडीया ले गयी है।"
"ओ हो.......! तो मिस गुडीया आपके नोट्स ले जाने लगीं ।हाँ भाई,उन्हें ही दो नोट्स हम कौन हैं...?"
"मुझे पता है क्या बात है।" अभिषेक ने अपने चेहरे पर कुटिलता भरी मुस्कान लाते हुए कहा।फिर हमदोनों के बीच दूसरी बातें होने लगीं और अन्धेरा होने पर दोनों अपने-अपने घर चले गए।
कुछ दिनों तक नोट्स के लेन-देन से और बातचीत होने से मेरे और गुडीया के बीच अच्छी दोस्ती हो गयी थी। अब धीरे-धीरे वो मेरी रूचि-अरुचि के बारे में जानने लगी थी और मैं भी उसकी पसंद-नापसंद से थोड़ा बहुत अवगत हो गया था। हमदोनो के पास अब एक-दूसरे का मोबाइल नंबर था और जब भी हम अलग होते तो फोन हमारे बीच संपर्क का माध्यम बना रहता था।हम फोन पर ज्यादा बातें तो नहीं करते थे लेकिन छुट्टी के दिन अगर मैं हरेक घंटे गुडीया को कॉल नहीं करता तो तुरंत ही उधर से उसका फोन आ जाता था। कॉलेज के बाकी स्टूडेंट्स ने अब हमदोनों के बारे में बातें शुरू कर दी थीं।हालाँकि मैं इन बातों को सुनकर गौरवान्वित ही महसूस करता था क्योंकि कॉलेज की सबसे सुन्दर लड़की ने एक तरह से बाकी सारे लड़कों को छोड़ केवल मुझे अपना अच्छा दोस्त बनाया था। फिर भी मैं इस बात को लेकर चिंतित था कि लोग तो दोस्ती से ज्यादा की बातें कर रहे थे जैसा हमारे बीच बिलकुल नहीं था।हमदोनो बस अच्छे दोस्त थे।इसलिए मैंने ये सारी बातें गुडीया को बतायीं। गुडीया थोड़ी स्वछन्द विचारों की स्वामिनी थी। उसने मुझे साफ़-साफ़ कह दिया-
"मुझे इन बातों से कोई लेना-देना नहीं है।वी नो दैट वी आर ओनली फ्रेंड्स। है ना.....!"
"ह.. हाँ..।"
मैंने थोड़ा रुकते हुए जवाब दिया था।
" कोई बात नहीं तुम फोन नहीं कर पाये तो,लो मैंने तो कर लिया ना......?"
"हाँ.....। अच्छा और बताओ गुडीया क्या चल रहा है आजकल?"
"मेरा तो ग्रेजुएशन हो गया और मैंने दो-तीन यूनिवर्सिटीज में पी.जी. के लिए इंट्रान्स भी दिया है।"
"ओह इट्स गुड....! मैं तो फिर से ग्रेजुएशन कर रहा हूँ।इस साल मेरा फर्स्ट इयर कम्पलीट हुआ । नंबर अच्छे आये हैं अब देखो आगे क्या होता है.....।"
"अच्छा है ....। अच्छा कुंदन मैंने तुम्हें एक बात बताने के लिए फ़ोन किया था।काफी जरुरी बात है....।"
मेरे और गुडीया दोनों के बारहवीं में बहुत अच्छे अंक आये थे।हमने पटना यूनिवर्सिटी के सारे महाविद्यालयों में स्नातक में नामांकन के लिए आवेदन दे दिया था।गुडीया ने पटना विमेंस कॉलेज में भी आवेदन दिया था लेकिन मैं भगवान से प्रार्थना कर रहा था कि उसका नामांकन विमेंस कॉलेज में ना हो पाये।हालाँकि मैं उसके बारे में बुरा नहीं सोच रहा था। उसी समय भगवान् से मेरी दूसरी विनती यह रहती थी कि हमदोनों का नामांकन एक साथ पटना साइंस कॉलेज में हो जाए। भगवान् को भी शायद मुझसे स्नेह था उन्होंने मेरी पहली प्रार्थना तो अस्वीकार कर दी थी और गुडीया का नाम विमेंस कॉलेज की पहली सूची में ही आ गया था।लेकिन वहीँ उसका नाम साइंस कॉलेज की भी पहली सूची में था। मेरा नाम भी साइंस कॉलेज में एडमिशन की पहली लिस्ट में अंकित था।भगवान् ने मेरी दूसरी प्रार्थना तो सुन ली थी लेकिन अब आगे का सारा दारोमदार गुडीया और उसके अभिभावकों पर था।मैं इस बात से थोड़ा व्यथित था कि कोई भी अभिभावक अपनी लड़की की बेहतरी के लिए उसे विमेंस कॉलेज ही भेजना चाहेगा और इस तरह से मैं गुडीया से दूर हो जाऊंगा।मैंने गुडीया से अनुनय किया था कि वो अपने अभिभावकों के सामने ये पक्ष रखे कि साइंस कॉलेज विमेंस कॉलेज से बेहतर है। गुडीया भी मेरे साथ ही पढ़ना चाहती थी और उसने वही किया जो मैंने कहा था।गुडीया के चाचा भागलपुर विश्वविद्यालय में प्रोफेसर थे और उन्होंने भी गुडीया के पापा को यही सुझाव दिया को वो उसका दाखिला पटना साइंस कॉलेज में ही करवा दें।फिर क्या था....,गुडीया और मेरा दोनों का एडमिशन पटना साइंस कॉलेज में हो गया। साइंस कॉलेज में पढ़ना किसी भी विद्यार्थी के लिए अत्यंत ही शान की बात थी।इसलिए मेरे और गुडीया की ख़ुशी का कोई पार नहीं था।हमदोनो की ख़ुशी तो और दोगुनी हो गयी थी क्योंकि हम पटना के सबसे अच्छे कॉलेज में एक-साथ पढ़ने लगे थे।
मैं और गुडीया अब दोनों पटना में ही रहने लगे थे और वहीँ रहकर पढ़ाई करने लग गए थे। हम अच्छे दोस्त तो पहले से ही थे लेकिन यहाँ हमारे बीज नजदीकी बढ़ने लगी थी और हम एक-दूसरे से मिलने में ज्यादा स्वतंत्रता भी महसूस करते थे।अब हमारे बीच रिश्ता काफी प्रगाढ़ होने लगा था। हमदोनों को एक दूसरे की सोहबत काफी अच्छी लगने लगी थी। अब हमदोनो अक्सर अपनी शाम बिताने के लिए गांधी मैदान जाने लगे थे।एक तो गांधी मैदान हमारे कॉलेज और आवास से ज्यादा दूर नहीं था और दूसरा ये कि वहीँ हमें कुछ समय बिलकुल ही अकेले बिताने का मौक़ा मिलने लगा था। यूँ तो मैंने गुडीया का हाथ कई बार पकड़ा था। लेकिन एक शाम जब मैं गांधी मैदान में बैठा था और बातें करते-करते जब मैंने उसका हाथ पकड़ा था तो एक अलग ही अनुभूति हुई थी।शायद अब हम अच्छे दोस्त से कुछ ज्यादा हो गए थे। अब हमे अलग रहना बहुत बुरा लगने लगा था। कॉलेज में हम साथ में बैठते थे। लेकिन छात्रावास में हम एक साथ नहीं रह सकते थे।उस समय हम साथ होते तो नहीं थे लेकिन कोई अदृश्य डोर हमदोनो को बांधे रखती थी। हमारे बीच शायद कोई आकर्षण बल कार्यरत था जो हमें अलग होने नहीं देता था। जब किसी से स्नेह या प्यार बढ़ता है तो उसका स्थायित्व ढूँढने की प्रवृति भी बढ़ जाती है। और यही उस समय मेरे साथ हो रहा था। मेरे अंदर जलन की मांसपेशी सक्रीय हो गयी थी।जब भी मैं किसी दूसरे लड़के से गुडीया को बातें करते देखता था तो मैं काफी असहज हो जाता था। ये हाल केवल मेरा ही नहीं था। कहते हैं ना हरेक क्रिया के विपरीत बराबर प्रतिक्रया होती है। तो उसी के परिणाम स्वरुप गुडीया मुझे कई बार दूसरी लड़कियों से बातें करते देख कर डाँट चुकी थी। हममे से किसी ने भी एक-दूसरे को आज तक "आई लव यू " नहीं कहा था।लेकिन,हमदोनो के बीच एक अनकहे प्यार का बीज प्रस्फुटित हो चुका था। उससे कोंपल निकलने लगे थे और हमारे बीच होने वाली प्यार भरी बातों की बारिश में हमारे प्रेम का पौधा दिनानुदिन सिंचित होने लगा था।
"हाँ.... गुडीया बताओ क्या बात बताना चाहती हो....?"
"यार मेरी जिंदगी तो एक ढर्रे पर चल रही है।सुबह होते ही जल्दीबाजी में किसी पहले से फीड किये प्रोग्राम की तरह मैं ऑफिस के लिए तैयार होता हूँ। दिनभर ऑफिस में काम करने के बाद जब थोड़ा बहुत आराम मिलता है तो रात नींद की चादर बिछाए मेरा इंतज़ार कर रही होती है।कैसे दिन गुज़र जाता है कुछ पता ही नहीं चलता।"
"तो इससे और अच्छी नौकरी के लिए ट्राय क्यों नहीं करते.....?"
मेरे मार्क्स काफी अच्छे आ रहे थे। मैं अब नौकरी करूँ या पहले अपनी पढ़ाई पूरी करूँ इस द्वंद्व में फंस गया था।मैं काफी उहापोह में था।मैंने अपने शिक्षकों से सलाह ली थी।सभी मुझे यही जवाब दे रहे थे-
"पहले ग्रेजुएट हो जा फिर नौकरी करते रहना। देखो तुम कितने अच्छे लड़के हो। एक तो तुम इतने अच्छे कॉलेज में पढ़ रहे हो ऊपर से तुम अपनी कक्षा के बेहतरीन विद्यार्थियों में से एक हो।मेरी राय तो यही है कि पहले तुम अपनी पढ़ाई पूरी कर लो बाद में नौकरी-वौकरी करते रहना।" शिक्षकों से तो मुझे यही अपेक्षा भी थी।शिक्षक ही क्यों हर कोई मुझे यही सलाह देता कि पहले पढ़ाई पूरी कर लो बाद में नौकरियाँ तो मिल ही जाएंगी। लेकिन फिर भी मैंने सब से राय ली। मैं गुडीया के पास गया,"गुडीया देखो सर बोल रहे हैं कि पहले अपनी पढ़ाई पूरी करो,तुम्हारा क्या ख्याल है....?"
सभी की बातें एक तरफ और मेरा अंतर्द्वंद्व एक तरफ।रह-रह कर दोनों विचार एक दूसरे पर हावी हो रहे थे। पहला विचार कहता नौकरी,तो कभी पढ़ाई वाला विचार उसपे विजय पाकर मेरे सामने खड़ा हो हो जाता और कहता पगले पहले पढ़ाई पूरी कर ले। इन दोनों विचारों के युद्ध के बीच एक तीसरा मोहब्बत वाला भाव भी रण में कूद जाता और पढ़ाई वाले विचार की सेना की तरफ से युद्ध करने लगता था।प्यार वाली भावना का तर्क कुछ अलग ही था। उसका कहना था कि पढ़ाई पूरी कर ले कम-से-कम अगले डेढ़ साल तक तो तुम गुडीया के साथ रह पाओगे ना। और अगर ग्रेजुएशन के बाद दोनों को एक ही तरह की नौकरी मिल जाए तो कितना अच्छा होगा ज़रा सोचो....। उस विचार के इस तर्क के तुरंत बाद नौकरी वाले विचार का आघात मेरे मन में होता-"देख अगर गुडीया तुझसे प्यार करती होगी तो वो हर हाल में तुम्हारे साथ पूरी जिंदगी बितायेगी।"
ये जवाब प्यार वाली सेना पर एक तरह से ब्रम्हास्त्र की तरह साबित हुआ और प्यार वाला विचार युद्धभूमि छोड़ते हुए बोल गया,"ठीक है कुंदन जो अच्छा लगे वो करो मगर अभी तो तू गुडीया से दूर ही हो जाएगा ना..।"
"कोई फर्क नहीं पड़ता .....। "नौकरी वाले विचार ने रूखेपन से जवाब दिया।
एक भूखे आदमी की क्षुधा कितनी तीव्र है ये बस उसे पता होता है। उसे कितनी जल्दी और कितना भोजन चाहिए इसका निर्णय बस उसे करना होता है। लाचारी के कारण ही कोई प्यासा मनुष्य सहारा में पैदल चला जाता है। अपनी तृष्णा शांत नहीं कर पाता। लेकिन अगर उसे उस अवस्था में पानी की एक बूँद भी मिल जाए तो वह उससे तृप्त होना चाहता है। भूखा मनुष्य यह नहीं देखता कि उसे दो दिन बाद स्वादिष्ट भोजन की दावत मिलने वाली है। वो तो सूखी रोटी के दो कौर से भी अपनी जठराग्नि पर काबू पाना चाहता है। ठीक उसी भूखे और प्यासे आदमी के सामान मेरी दशा थी। उस समय मुझे नौकरी की बहुत ही ज्यादा दरकार थी...,चाहे छोटी हो या बड़ी ...। सो अंततः मैंने बैंक ज्वाइन कर लिया। अब मैं कॉलेज को अलविदा कह चुका था। मैं एक विद्यार्थी से एक क्लर्क हो चुका था।मैंने सब से विदा लिया और साइंस कॉलेज को हमेशा के लिए बाय कह के चला गया।
"क...कुंदन ...,दरअसल एक बात है...।"
गुडीया ने थोड़ा अटकते हुए धीमी आवाज में मुझसे कहा।और इतना कहने के बाद वो चुप हो गयी।
"क्या बात बताना चाहती हो बोलो ना गुडीया....। साफ़-साफ़ बताओ ना बात क्या है...?"
"यार कल मेरा इंगेजमेंट हो गया ....।"
इतना सुनते ही मैं स्तंभित हो गया। पता नहीं क्यों मेरी आँखें दरिया बन गयी थीं। आंसुओं की अविरल धार सी बहने लगी। मेरे हाथ कांपने लगे। अभी तक मैं खड़े-खड़े बात कर रहा था। मेरे पैर भी थरथराने लगे और मैं वहीँ अपनी पलंग पर लेट गया। मुझे अब कुछ समझ नहीं आ रहा था। मेरा दिमाग एकदम शून्य हो गया था। मुझे चारो ओर अन्धेरा दिख रहा था। मैं ये भूल गया था मैं कहाँ हूँ...। कुछ देर तक पूर्ण शान्ति बनी रही। उसके बाद एक मीठी ध्वनि मेरे कान पर पड़ रही है ऐसा मुझे आभास हुआ।उस ध्वनि को सुनने के बाद मुझे थोड़ा होश आया और मैं किसी अंधकूप से जैसे वापस आया।
"कुंदन ...."
"हाँ गुडीया क्या बोल रही हो तुम...?"
"कुंदन तुमने सुना नहीं!मैंने कहा कि कल मेरी सगाई हो गयी...।"
गुडीया ने थोड़ा जोर डालते हुए बोला। जैसे वो मुझे यकीन दिलाना चाह रही है कि उसकी सगाई हो चुकी है और बहुत जल्द उसकी शादी भी हो जायेगी...।
मेरे होठो पर जैसे ताला पड़ गया।गले से आवाज का आवागमन पूर्णतया अवरुद्ध हो गया। आँखें भी थमने का नाम नहीं ले रही थी। एक बार फिर से मेरी संवेदना जैसे शून्य में गोते लगा रही थी। और मेरा मन कहीं थाह पाने के लिए इधर-उधर भटक रहा था। तभी अचानक मेरे मस्तिष्क पर मेरा अतीत चलचित्र की भाँति प्रतिविम्बित हो गया। मुझे सबसे पहले वो दिन याद आया जब मैंने गुडीया को पहली बार देखा था। फोन अभी भी मैंने हाथ में पकड़ कर कान से लगा रखा था लेकिन कुछ बोल नहीं पा रहा था। मैं अब बस देख रहा था अपने अतीत की परछाइयों को जो एक-एक कर मेरे मानस-पटल पर चित्रित हो रहे थे। उस पहले दृश्य के बाद मेरे दिमाग में वो चित्र उभरा जब मैंने गुडीया का हाथ अपने हाथ में ले रखा था। हमदोनो ने उस दिन एक-दूसरे के साथ पूरी जिंदगी बिताने का वादा किया था। और उस दिन के बाद हमारा प्यार और भी ज्यादा बढ़ गया था। इस दृश्य के ओझल होते ही अगला दृश्य जिसने मुझे पूरी तरह से झकझोर दिया।अब मुझे वो दिन याद आ रहा था जब गुडीया मेरी बाहों में थी और उस दिन भी वो मुझे यही कह रही थी,
उस दिन हमारा प्यार अपने चरम को प्राप्त कर चुका था....। हम उस दिन पूरी तरह से एक-दूसरे के हो गए थे। ये लाइनें मुझे गुडीया ने पटना के होटल में कही थीं। होटल के उस कमरे में हमदोनो अपने प्यार को एक-दूसरे से जताने के बाद उसी अवस्था में एक कम्बल के भीतर लेटे हुए थे। उसने मेरी बाहों पर अपना सर रखा था और एक हाथ से मेरे बालों को सहलाते हुए आगे की जिंदगी का एक-एक पल साथ में बिताने का वादा कर रही थी। उसकी बातों में कितना विश्वास दिख रहा था मुझे।मैंने भी उसकी ललाट को चूमते हुए यही वादा दोहराया था। अभी भी उसकी आँखों में मुझे प्यार का समंदर नज़र आ रहा था। अपने प्यार को इस हद तक जताने की इच्छा भी तो मुझसे गुडीया ने ही ज़ाहिर की थी। मैं तो उसका मतलब भी नहीं समझ पाया था जब उसने मुझसे एक दिन कहा था ,"कुंदन हमारा प्यार अभी भी अधूरा है।"
"हाँ जब तक हमारी शादी नहीं हो जाती हमारा प्यार पूरा कैसे हो सकता है?"
"अरे बेवकूफ शादी तो हम करेंगे ही ये तो हमने वादा ही किया है फिर तुम मुझसे अपना प्यार जताते क्यों नहीं।"
और इतना कहने के बाद उसने अपने अधरों को मेरे होठों पर रख दिया था। अब मुझे समझ में आया कि वो किस तरह प्यार जताने की बात कर रही थी। फिर उसने ही होटल की योजना बनाई और हम एक दूसरे के वदन से वाकिफ हो गए थे। इस तरह नौकरी लगने से पहले कई बार हमने इस तरह एक-दूसरे को प्यार किया था।
मैंने अपने आप को थोड़ा सम्भाला ....। अतीत की यादों से थोड़ी मोहलत माँगी और गुडीया से कहा
"यार ...,ये क्या बात कर रही हो तुम...?"
"फिर मेरा क्या होगा गुडीया ...?"
मैंने कुछ बोलना चाहा लेकिन मुझे बीच में ही रोककर उसने अपने मंगेतर के बारे में बताना शुरू कर दिया।
"पता है कुंदन वो 6 फ़ीट 2 इंच लंबे हैं एकदम ह्रितिक रौशन की तरह बॉडी भी बना रखी है उन्होंने। बैंगलोर में इंजीनियर हैं ।पता है उनकी सैलरी कितनी है....?"
"कितनी?"
मैंने गुडीया को इतना ज्यादा उत्साहित कभी नहीं देखा था। उसकी बातों से अब मुझे लग रहा था कि उसका चिरप्रतीक्षित सपना पूरा हो गया हो। मेरी थोड़ी भी दिलचस्पी उसकी बातों में अब बच नहीं गयी थी फिर भी मैंने उसका दिल रखने के लिए पूछा -
"मुझे तो पता नहीं कितने की होगी तुम ही बता दो....।"
"पूरे दो लाख की हीरे की अंगूठी है कुंदन .......।"
अब मेरा दिल थोड़ा भारी हो गया था और शायद अब मेरा धैर्य मुझे जवाब दे गया था इसलिए मैंने उस से पूछा
"अच्छा तो तुमने ये बताने के लिए मुझे फोन किया था....!"
"क्यों कुंदन तुम खुश नहीं हो ....?"
बोलते-बोलते मैं रुक गया। थोड़ी देर हमदोनों के बीच चुप्पी रही फर गुडीया ने ही मौनभंग करते हुए कहा,
ये सुनकर मैं जैसे जड़ हो गया। मुझे फिर से वो सारे दिन याद आने लगे जब गुडीया कहा करती थी कि कुंदन हम कभी भी एक-दूसरे से अलग नहीं होंगे। उन्ही दिनों को याद करते हुए मैंने गुडीया से कहा,
"लेकिन गुडीया...., उन सारी बातों का क्या ....? उन वादों का क्या जो तुमने कई बार मुझसे किया था...?"
"गुडीया तुम्हारी मनः स्थिति भले ही उस वक़्त कुछ रही हो और तुमने वो सारे वादे भावना में आके किये होंगे लेकिन मैं तो तुम्हे सच में प्यार कर बैठा ना.....। अब तुम्हारे बगैर......।"
इतना कहते-कहते मेरी आँखें जो कि कुछ समय पहले ही शांत हुई थीं एक बार फिर उनसे नदी बहने लगी।
"कुंदन...प्लीज....!देखो बच्चों की तरह मत करो। तुम्हे पता है मेरा इंगेजमेंट हो चुका है और मैं अपनी जिंदगी में जैसा लाइफ-पार्टनर चाहती थी अमित बिलकुल वैसे ही हैं। तुम अपनी लाइफ भी तो एक बार देखो इतनी सी ही सैलरी में तुम्हारे ऊपर कितनी जिम्मेदारी है। तुम्हे अपने पूरे परिवार का ख्याल रखना होता है।ऊपर से तुम्हारी ये ज्वाइंट फैमिली.....।हाउ कैन आई एडजस्ट देअर...? देखो कुंदन मैंने बड़े-बड़े सपने देख रखे हैं। और ये सपने शायद तुम्हारे साथ रहकर कभी पूरे नहीं हो पाएंगे। मुझे घूमना-फिरना,सजना-संवरना,परिवार वगैरह के झंझट से दूर रहना पसंद है और ठीक इसके विपरीत तुम्हारा दिन-रात बस अपने परिवार की जरुरतें पूरी करने में बीतता है। उनके कारण ना तो तुमने कभी अपनी जिंदगी जी है और ना ही कभी अपने बारे में सोच पाते हो। ना कुंदन ...,मैं तुम्हारे साथ अपनी लाइफ नही जी सकती।"
ये सारे वाक्यांश मेरे ह्रदय को छलनी कर गए थे। गुडीया के द्वारा मेरे व्यक्तित्व और मेरी नौकरी पर कहा गया एक-एक हर्फ़ अब मुझे कांटे की तरह लग रहा था। मुझे पता था बैंक क्लर्क कोई बड़ी नौकरी नहीं है लेकिन मेरी सर्वप्रिया गुडीया द्वारा यह बात दुहराये जाने पर मैं बिलकुल ही जीर्ण हो गया। गुडीया ने मुझे अपने मंगेतर के सामने कद और धनाढ्यता में तो बौना कर ही दिया था, साथ-साथ सेक्स और प्यार के बीच उसके द्वारा बताये गए अंतर पर भी मैं काफी गहराई से सोचने लगा था।
मेरे मन में अब कुछ वाक्य बार-बार अनचाहे ही आ रहे थे। "सेक्स बस समय और शरीर की जरुरत है....।" "वादे बस सेक्स के बाद आई भावनाएं.....।" शादी के लिए जीवनसाथी चुनना भी किसी तिज़ारत से कम नहीं....। आँखों से अविरल धारा......। मैं ये सोच रहा था कि काश मैं उसी समय समझ पाता कि मैं बस उस वक़्त की जरुरत था....। काश गुडीया भी मेरी बस जरुरत ही होती क्यों मैंने उसे अपनी चाहत बना लिया। क्यों मैंने कर दिए उस से सच्चे वादे और क्यों समझ बैठा उसकी भावुक बातों को जीवन के आगे के सफ़र का रास्ता....। क्यों....?
"हाँ जरूर......"।
इतना कहकर मैंने फोन काटा ,फोन को वहीँ पलंग पर रख के पलंग पर उल्टा लेटे हुए मैं अपने नम नेत्रों को तकिये में छुपाने की नाकाम कोशिश करने लगा........।
कहानीह पढ़िए 📝 एक्स गिर्लफ्रेंड की कॉल
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